किस जन-गण-मन अधिनायक की स्तुति करें..? किस भाग्यविधाता के आगे झंडी लहरायें..?

एक और छ्ब्बीस जनवरी बीत गई। सेना के तीनों अंगों के जवान एक बार और कदमताल मिलाकर चल लिये, उँची इमारतों पर तिरंगा एक बार और फहर गया, मिठाइयां फिर बँट गईं, जन-गण-मन अधिनायक की स्तुति एक बार और हो गई, एक और छब्बीस जनवरी बीत गई।

लेकिन यह गणतंत्र है किसका..? क्या इसी गणतंत्र का सपना देखतीpic हमारे राष्ट्रनायकों की आँखें मुंदी थीं..? उनसठ साल पहले ही क्या हम ग़लत रास्ते पर चल पड़े थे या इन लम्बी, अँधेरी, कुहासे भरी राहों में कोई मोड़ जो लेना था, वह छूट गया..? कुछ तो ग़लत है वरना मेरे आगे ये दीवार कैसी..? कोई रास्ता क्यों नहीं सूझता..?

कालाहाँडी और पलामू के आदिवासी जो भूख मिटाने के लिये बच्चे बेच रहे हैं, बन्दर-साँप-चूहे और पेड़ की पत्तियाँ खा कर गुजारा कर रहे हैं वे किस जन-गण-मन अधिनायक की स्तुति करें..? खेलने-कूदने की उम्र में जो हाथ प्लेटें साफ कर रहे हैं, पटाखे बना रहे हैं, दुकानों में/कालीन उद्योग में ज़िन्दगी गर्क़ कर रहे हैं वे किस भाग्यविधाता के आगे झंडी लहरायें..? निजीकरण के नाम पर फ़ीसें बढ़ाकर, शिक्षण संस्थाओं को दौलतमंदों के नाम आरक्षित कर जिन छात्रों की प्रतिभा दौलत और सियासत के जूतों तले रौंदी जा रही है, वे तव शुभ आशिष माँगें या भविष्य को उज्जवल बनाने के लिये समय रहते हाथों में जस्ते का कटोरा थाम लें..? कहाँ है इनका गणतंत्र..?

मेरा कश्मीरी विस्थापित दोस्त कहता है हमारे बगीचे में जो सेब होते थे, काश तुझे खिला सकता। तब शायद तू समझ पाता ये मेस में मिलने वाले फल सेब नहीं कुछ और हैं.. उमर अब्दुल्ला कहते हैं वादी में ’हिन्दुस्तानी’ सीआरपीएफ़ के चलते कश्मीरी एलियनेशन(alienation) फील कर रहे हैं। शायद मेरे दोस्त को भी फील होता होगा..

तथाकथित ’फ़ेक’ जामिया एनकाउन्टर में मारे गये इंस्पेक्टर शर्मा को अशोक चक्र दिया जाता है। उनकी विधवा राहत की साँस लेती हैं। पतिदेव अब जाकर ’ऑफिशियली शहीद’ हुए हैं। शायद अब सवाल कम हों।

सिर्फ एक अनजाना डर दिखाकर, धर्मभीरुता का फायदा उठाकर एक पूरी क़ौम को रोटी-पानी-मकान-बिजली-सड़क से महरूम रखा गया, नतीजा उनकी रग-रग में कट्टरता लहू के साथ रवाँ है। और आज उनके मजहबी अंधेपन का आलम यह है कि किसी को ग़जा पर हुए हमले पड़ोसी की ब्लास्ट में मौत से ज्यादा तक़लीफदेह लगते हैं। इतना हौवा खड़ा कर दिया जाता है कि देश के सर्वाधिक विकसित प्रान्त को विकास के चरम तक ले जाने वाला करिश्माई, आज की तारीख में राष्ट्रीय नेतृत्व का सबसे ’प्रामिसिंग’ दावेदार उन्हें सिर्फ ’मौत के सौदागर’ के रूप में ही स्वीकार्य है..। 

अठारह घंटे प्रतिदिन काम करके पैसे कमाने वाला एक सॉफ़्टवेयर इंजीनियर जब इनकम टैक्स देता है तो उसे पता नहीं होता कि यह गाढ़ी कमाई राष्ट्रनिर्माण की बजाय चंद सब्सिडी, लॉलीपॉप देने में जाया हो रही है। ग़रीब किसान के नाम पर भू-माफियाओं को, सहकारिता के बड़े मगरमच्छों को 84000 करोड़ का चारा देने में खर्च हो रही है।

एक सरकारी विभाग में कर्मचारी ’भयमुक्त समाज की पहरुआ’ के जन्मदिन पर प्राणों का उपहार देता है। उस आपराधिक मुख्यमंत्री की राजधानी से चुनाव मैदान में विरोधी पार्टी उसे खड़ा करती है जो मुंबई धमाकों का सजायाफ़्ता मुजरिम है। लोहिया, जयप्रकाश, महामाया बाबू की पार्टी आज पूंजीवादियों और सीमा परिहार, मुख्तार अंसारी, और आज़म खाँ जैसों की जेब में है।

गणतंत्र सठिया रहा है। नहीं, अभी तो युवा है। राजनीति ने युवा की परिभाषा ही बदल दी है। मुल्क़ की आधी आबादी 40 वर्ष से नीचे है, उसका नेतृत्व करने के लिये अस्सी साल के युवा दम ठोंककर पाले में खड़े हैं, सभी कह रहे हैं-अभी तो मैं जवान हूँ।

युवा पीढ़ी यौवन में मदमस्त है। भगत सिंह के साथ ब्रिटिश शासन की चूलें हिला देने वाला, जयप्रकाश के साथ भ्रष्टाचार और तानाशाही के खिलाफ बिगुल बजाने वाला युवा आज रोलिंग स्टोन के साथ कूल्हे मटकाने के लिये पुलिस के डंडे खाने को भी तैयार है। जातिवाद, आरक्षण की राजनीति के खिलाफ एक राजीव गोस्वामी संसद के सामने आत्मदाह कर लेता है, तो उसी का समवयस्क शराब न पेश करने पर जेसिका लाल को गोली से उड़ा देता है, प्रपोजल न स्वीकार करने पर प्रेमिका को एसिड से जलाकर मार देता है। वहीं एक लड़की नये प्रेमी के साथ मिलकर पुराने प्रेमी के शरीर के 300 टुकड़े कर देती है।

प्रश्न वहीं है- कहाँ रास्ता भूले हम..? कहाँ से ये दीवार आई सामने..? कहीं सुना है.. हर डेड-एंड से भी एक रास्ता निकलता है। वह है यू-टर्न का। 

क्या वक़्त आ गया है यू-टर्न लेने का..? इज इट टाइम टू कलेक्ट एंड बर्न एवरीथिंग, एंड टू स्टार्ट अगेन फ्रॉम द एशेज टू ग्लोरी..?

शायद कोई और रास्ता है भी नहीं। किसी प्रसिद्ध कवि की पंक्तियां याद आ रही हैं--

भगत सिंह इस बार न लेना काया भारतवासी की,
देशभक्ति के लिये आज भी सजा मिलेगी फाँसी की.
जनता की यदि बात करोगे, तो गद्दार कहाओगे,
बम्म-सम्म की छोड़ो, भाषण दिये कि पकड़े जाओगे..

हम आज तक अपने आप को माफ़ नहीं कर पाये कि भिंडरावाले हमारी क़ौम में पैदा हुआ, वे कैसे दुनिया से नजर मिलायेंगे जिनके घर-घर में अफ़जल गुरु हैं..........

मैनें खिड़की से बाहर देखा तो रामपुर स्टेशन बीत रहा था। चलो गनीमत है अभी तक तो सही-सलामत चल रही है, अब समय से दिल्ली पहुँचा दे तो सही है।

25 दिसम्बर की सुबह मैं बरेली से दिल्ली कुछ कार्यवश जा रहा था, रात 12 बजे की श्रमजीवी एक्सप्रेस 9 घंटे के विलम्ब के बाद सुबह रवाना हुई थी। बेंच की चौड़ाई के साढ़े चार इंच हिस्से में सो-कर, उंघकर रात बिताने के बाद मैं अपनी आरक्षित बर्थ पर फैला हुआ उसकी चौड़ाई का आनंद उठा रहा था कि मेरे कानों में ये शब्द पड़े।

स्वाभाविक उत्सुकतावश मैनें देखा- एक 50-55 वर्ष की अवस्था के सिख सज्जन एक अन्य बुजुर्गवार से बातें कर रहे थे। बुजुर्गवार की वय 80 से उपर तो रही ही होगी, खादी की जैकेट-कुरता-धोती, माथे पर गाँधी टोपी, खासा प्रभावशाली व्यक्तित्व था दोनों का।

बुजुर्ग सज्जन मेरे साथ ही सवार हुए थे, और मुझे बाद में पता चला कि जिस कूपे में हम तीन यात्रा कर रहे थे उसी में एक सज्जन को धूम्रपान करता देख उन्होंने सहज ही प्रश्न कर डाला-

क्यों भाई, सिगरेट क्यों पी रहे हो?

अचकचाये सज्जन बोले- यूँ ही, बस टाइम पास के लिये।

अरे अगर टाइम पास करना है तो मुझसे गप्पें ही लड़ा लो, क्यों इसपर अपना पैसा भी जाया कर रहे हो और सेहत भी?

उसके बाद उन सज्जन का तो पता नहीं पर सारे कूपे की रुचि बुजुर्गवार में जागृत हो गई उन सिख सज्जन की भी, जो अबतक चुपचाप बैठे हुए थे। उनमें बातें शुरु हो गईं और जब इन्हीं बातों के दरमियान मैनें ये शब्द सुने तो आँखों ने सोने से इस्तीफा दे दिया।

मैं चुपचाप दोनों की बातें सुनता रहा, थोड़ी देर बाद उपयुक्त अवसर पर मैं भी चर्चा में शामिल हो गया। वहाँ जो सुना, वही स्मृति के आधार पर प्रस्तुत कर रहा हूँ।

बात चल रही थी धार्मिक कट्टरता तथा अल्पसंख्यक(पढ़ें मुस्लिम) तुष्टिकरण की। जब वे सज्जन बोल उठे-

बाबूजी, सन 71 में किसी ने मुझसे सिख की परिभाषा पूछी। मैनें जवाब दिया ’वी आर नो वन एल्स बट द बेस्ट ऑफ हिन्दूज’. जब हमारे हिन्दू धर्म पर संकट आया, तब हमारे दशमेश ने हमें ये बाना दिया। वे भीड़ में छुपकर मारते थे, हमारे गुरु ने हमें सजाया और बोला तुम सामने से लड़ना। वी सिंबलाइज्ड द माइट ऑफ हिन्दुइज्म टू देम एंड डेयर्ड देम टू अटैक ऑन अस, क्लीयरली डिस्टिन्ग्विशेबल इन द क्राउड। हम तो बस अपने हिन्दू धर्म की आर्मी थे।

इसके बावजूद हम आज तक अपने आप को माफ़ नहीं कर पाये कि भिंडरावाले हमारी क़ौम में पैदा हुआ, वे कैसे दुनिया से नजर मिलायेंगे जिनके घर-घर में अफ़जल गुरु हैं..... वैसे भी भिंडरावाले हमारी क़ौम में पैदा हुआ था जरूर, लेकिन उसे हमारे उपर थोपा तो आपने ही था। फिर भी हम अपनी ग़लती मानते हैं कि उसकी इन हरकतों के बावजूद हमने उसे डिसओन(Disown) क्यों नहीं किया। मैं तो आर्मी को भी दोष नहीं देता कि अकाल तख्त को चोट कैसे आई! गलती हमारी है कि हमने उस देशद्रोही, पंथद्रोही को अपने हरमंदिर साहिब में घुसने कैसे दिया उस अकाल तख्त पर बैठने की इजाजत कैसे दे दी जिसपर दशमेश भी नहीं बैठे। आपने हमें गाजर-मूली की तरह काटा, स्टेटमेंट दिये कि "बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती तो हिलती ही है.." फिर भी हम ने कोई शिक़वा नहीं किया। हम बस ये सोचते रहे कि कोई दूसरा भिंडरावाले फिर कभी न पैदा होने पाये........

और मैं सोचता रहा अपने नेता की हत्या पर क्रोधित होकर एक पूरी क़ौम का सफाया करने को आतुर हो उठा समाज किन गलियों से गुजरते हुए आज उस मुर्दा हालत में आ पहुँचा है जहाँ आतंकवाद का भी रंग तय होने लगा है। जहाँ ब्लास्ट में सैकड़ों जानें लेने वाले दहशतगर्द सिर्फ़ ’सिरफिरे’ कहला कर बच जाते हैं। ए.के. 47 की गोलियों के मुकाबले ’हीलिंग टच’ की नीति अपनाई जाती है और राष्ट्र की अवधारणा के प्रतीक पर हमला करने वाले गद्दार की फांसी सिर्फ जुमे के नाम पर टाल दी जाती है। आतंकवाद के हर राष्ट्रद्रोही कृत्य को बाबरी मस्जिद विध्वंस की प्रतिक्रिया बताने का घिसा-पिटा रेकार्ड अठारह साल बाद भी झाड़-पोंछ कर हर बार चलाया जाता है। कोई यह सोचने की जहमत नहीं उठाता कि अगर सिख अपने उपर हुए अत्याचारों की प्रतिक्रिया करना चाहते तो आज पाकिस्तान के नमकहलाल अन्तुले की कई पुश्तें दोजख़नशीं हो चुकी होतीं, और सोनिया मैडम भी सपरिवार इटली में हवाखोरी कर रही होतीं। क्या किसी को यह नहीं समझ आता कि स्वर्ण मंदिर और अमरनाथ ब्लास्ट की प्रतिक्रियायें अगर होने लगें तो ’प्रपोर्शनेट रिएक्शन’ नाम की कोई चीज़ नहीं होगी। छद्म सेकुलरपंथियों को यह बात जाने कब समझ आयेगी कि हर अहमदाबाद की जड़ में गोधरा होता है।

खैर छोड़िये, विषय से भटकने की आदत होती जा रही है। उन सज्जन ने दिल्ली स्टेशन पर उतरने से पहले एक बात कही थी-

जानते हो, मेरे पिता अविभाजित भारत में लाहौर कालेज में प्राध्यापक थे और बच्चों को आत्मरक्षार्थ बम बनाना सिखाते थे। आजादी के बाद उन्हें सरदार पटेल ने एक रुक्का लिखकर दिया था- "गुरबख्श हिन्दुस्तान की एक बेशकीमती जान है, इसकी हर सूरते-हाल में हिफ़ाजत और मदद की जाय"। मेरे उपर मेरे छोटे बेटे और बीवी की जिम्मेदारी न हो तो मैं तो इस्लामाबाद में मानव-बम बनकर फट जाऊं। और ये जिम्मेदारी खत्म होने दो, कुछ न कुछ तो करुंगा ही।

यह बात मुझे और दुःख दे जाती है। एक शादीशुदा, गृहस्थ के मन में ये जज्बा है। और आज की हमारी पीढ़ी......! मुझे याद आता है टेक्निकल एंट्री स्कीम के तहत रिक्रूट्मेंट के लिये इंडियन आर्मी आती है, कुल 350 योग्य अभ्यर्थियों में से मात्र 32 अपीयर होने पहुँचते हैं। कहीं पढ़ा था- आर्मी में 13000 कमीशंड अधिकारियों की कमी है। समझ में आ जाता है क्यों.......

उन सज्जन का शुभ नाम था श्री गुरमीत सिंह रणधीर तथा सम्प्रति लखनऊ में एक बड़े बैंक में सीनियर मैनेजर(पी.आर.) हैं।

चलते चलते: कल नेताजी का जन्मदिन था। एक व्यक्तित्व जिसने दुश्मन की आँखों में आँखें डालकर देखना सिखाया। इसी आत्मविश्वास की एक खुराक और चाहिये नेताजी......

दयालु सुकुल चाचा, दसविदानिया, 8086 की मैक्सिमम मोड में 8251 से इंटरफ़ेसिंग और बुश को जूते। याने हम हैं ज़िन्दा ये बताने का वक्त आया है..

नमस्कार, सत श्री अकाल, आदाब अर्ज और अंगरेजी वाला हैलो। यह पोस्ट बस ये बताने के वास्ते है कि बंदा अभी ज़िन्दा है और ’वेल इन शेप’ है।

असल में हुआ ये कि कल कई मन्वन्तरोपरांत जब बालक ने अपनी ऑरकुट प्रोफ़ाइल खोली और एक मित्र को कबाड़(Scrap) भेजा तो पलटकर जवाब आया- अरे, अभी तू ज़िन्दा है। आश्चर्य!

तो भईया हमने सोचा कि ग़लतफहमियों को फैलने से बचाने के लिये एकाध ठेलनीय चीज़ का जुगाड़ किया जाय, लेकिन ससुर दिमाग इतना भन्नाया हुआ है कि कौनो आईडिये नहीं आ रहा।

बात यों है कि अपनी खबीस ज़िन्दगानी में हर चार महीने पर मासूमों के शारीरिक और मानसिक शोषण का सरकार द्वारा प्रेरित एक कुत्सित प्रयत्न होता है जिसे हम एंड-सेमेस्टर परीक्षाओं के नाम से जानते हैं। एक बार पुनः उसी कुत्सित साजिश का शिकार होने का मौका आया था जिसने बिलागिंग का भूत तो क्या बड़े-बड़े बरम बाबाओं का भी पानी उतार दिया।

किन्हीं अच्छे दिनों में माँ-बाप का सपना होता था- एक बेटा डाक्टर तो दूजा इंजीनियर। डाक्टरी में तो आज भी गनीमत है, इंजीनियर तो अईसे बे-भाव के पैदा हो रहे हैं कि पूछिये ही मत। बैंगलोर-हैदराबाद में चले जाइये तो देखकर थूकना पड़ता है कि किसी बी.टेक पर न जा गिरे। और अगर गुलाबी पर्चियों का यही दौर जारी रहा तो लाख ढूंढने की कोशिश कर लीजिये, थूकने की जगहिये ना मिलेगी।

पिछ्ले दिनों एक सीनियर पास-आउट से बात हुई। विप्रो में बैठे हैं(अब काम नहीं मिल रहा तो बैठे ही कहे जायेंगे)। चार महीनों से एक सहकर्मिका को ताड़ रहे थे। एक दिन मोहतरमा ने सरप्राइज देने के वास्ते इलू-इलू वाला गुलाबी कार्ड उनकी टेबल पर चुपके से रख दिया। भाई साहब ने देखा तो पछाड़ खाकर गिर पड़े। समझे कि हो गई छुट्टी, आ गया समय झोरा-झंडा बांधकर ’चिट्ठी आई है आई है चिट्ठी आई है’ करने का। वो तो खोलकर देखा तो जान में जान आई।  अभी ई हाल है तो बाबा वैलेंटाइन की जयंती पर जाने कितने खेत रहेंगे!

तो खैर पँचवी बार इस नरक-चक्र से गुजरना पड़ा।सी आर ओ से खिलवाड़ जब नया-नया बी.टेक ज्वाइन किया था, तो पहली बार CRO देखकर  भी खुशी के मारे सीना गज भर चौड़ा हो गया था, और जब C++ में पहली बार "Hello World" वाला प्रोग्राम बनाया तो सपने में बिल गेट्स और स्टीव जाब्स की कुर्सी भी हिलती हुई दिखाई दी थी। खाली एक सेमेस्टर मैकेनिकल इंजीनियरिंग पढ़नी थी(अपना ट्रेड तो इलेक्ट्रानिक्स था) लेकिन रैगिंग के दरमियान भी छुपते-छुपाते शहर गये और मय एप्रन-ड्राफ़्टर दुनिया भर का साजो-सामान खरीद लाये। तुर्रा यह कि दो-दो सेट खरीदे, ताकि एक के खराब होने की सूरत में वक्त न बर्बाद हो।

ड्राफ़्टर से बमुश्किल पन्द्रह-बीस लाइनें खींची होंगी और दो-तीन बार ही एप्रन पहनकर रन्दा-हथौड़ा चलाया होगा कि पहला सेमेस्टर वीरगति को प्राप्त हुआ।

ड्राफ़्टर का क्या किया जाय, यह दो साल बाद भी यक्षप्रश्न बना हुआ है। अलबत्ता एप्रन पर गणेशवाहन की कृपा देखकर समय रहते पैतृक भृत्य बुन्नीलाल को विंटर-आफर के तौर पर सप्रेम गिफ्ट किया गया। हुए नामवर बेनिशाँ कैसे-कैसे।

इस दुर्घटना के बाद दिल को वह ठेस पहुँची कि फ़िर आज तलक साजो-सामान तो क्या, किताबें खरीदने क विचार भी नहीं आया।

गुरुर्देवो भवःसच तो यह है कि बी.टेक सेमेस्टर-दर-सेमेस्टर व्यक्ति को निस्पृह-निरपेक्ष-निस्पंद रहने का संदेश देता रहता है। तीसरे सेमेस्टर में NS में वो धाक थी कि बड़े-बड़े सूरमा भी अपने आगे चित्त थे। सोचा था राजेन्द्र बाबू के बाद अगला ’इक्जामिनी इज बेटर दैन इक्जामिनर’ पैदा हो चुका है। रिजल्ट आया तो पता चला कि केवल तीन नंबर से बत्ती लगने से बच गये याने तैंतीस नंबर। उसी दिन से सब्जेक्ट विशेष से मोह समाप्त हुआ। पाँचो पेपरों को बराबर टाइम देने लगे, मतलब पढ़ाई ही बंद कर दी। घोर निराशा में चौथा सेमेस्टर दिया तो भी परसेंटेज पर कोई खास फ़रक नहीं पड़ा। फ़िर तो समझो गुरुमंत्र मिल गया।

इस सेमेस्टर में भी खास पढ़ाई नहीं हुई। पढ़ने में सबसे बड़ा नुकसान यह है कि जितनी मेहनत रटने में लगती है, उससे कहीं ज्यादा छः महीने बाद उसे भुलाकर नई चीज़ रटने में। सो भइये हम अपनी हार्ड-डिस्क हमेशा फ़ारमैट रखने लगे।

चलिये भी, क्या रामकहानी शुरू कर दी। खैर, इस बीच तीन ऐसी घटनाएं हुईं कि जी खुश हो गया।

पहली थी- माइक्रोप्रोसेसर के इम्तहान के ठीक पहले देखी गई ’दसविदानिया’। हमारे भूतपूर्व बी.टेक बंधुओं को माइक्रोप्रोसेसर के दुःस्वप्न आज भी याद होंगे। इन्हीं बुरे सपनों के बीच एक खुशनुमा झोंके की तरह आई ’दसविदनिया’. सच्ची मानिये, जी खुश हो गया इतनी खूबसूरत फ़िल्म देखकर। आगे की चर्चा के लिये निकहत क़ाजमी से संपर्क करें।

दूसरी घटना थी- बुश चच्चा के विरुद्ध पादुका-षड्यंत्र। यह बात भी इतनी पुरानी हो चुकी है कि एक पैराग्राफ भी लिख नहीं पा रहा हूँ क्योंकि जानता हूँ आप लोगों के माउस में एक स्क्राल-व्हील भी होगी।

तीसरी युगप्रवर्तक घटना थी अपने अनूप सुकुल जी द्वारा इस नाचीज की(और उसके चेहरे-मोहरे की) तारीफ। आपके सौंदर्यबोध और उपमा अलंकार के घनघोर ज्ञान की क्या बात करें, हम तो आज भी सोचकर लजा जाते हैं। यह दीगर बात है कि हमारे जुल्फ़ें कटवाने के बाद राजेश खन्ना और देवानन्द दोनों ने समर्थन वापस ले लिया और आज की डेट में हम शिबू सोरेन बने घूम रहे हैं। जो भी हो, इस उपमा के लिये धन्यवाद। कामना है कि चौखम्भा सुरभारती का अगला प्रकाशन कालिदास ग्रंथावली न होकर शुक्ल ग्रंथावली हो।

एक-दो-तीन...... कुल ८३ लाइनें हो गईं। चलिये एक पोस्ट का जुगाड़ और हुआ। अब ठेले देता हूँ, किसी को चोट लगे तो आनी मानी दोस।

नये ईसवी वर्ष की मंगलकामनायें

सभी से क्षमाप्रार्थना.... अपरिहार्य कारणों से न तो कुछ नया लिख पा रहा हूँ और न ही आप सबकी पोस्टें पढ़ पा रहा हूँ। जिन्हें पढ़ पा रहा हूँ उनपर टिप्पणी नहीं कर पा रहा। एक साथ कई असमर्थताओं से जूझना पड़ रहा है। परीक्षाओं, वाइवा के साथ-साथ लैपटाप की खराबी और स्वास्थ्य समस्याओं से निबटने के बाद अब सेमेस्टर ब्रेक में अपने गाँव जाना पड़ रहा है जो मेरा प्रिय शगल है, अस्तु मकर संक्रान्ति तक अनुपस्थित ही रहना है, क्योंकि "भाषा में भदेस हूँ, इतना कायर हूँ कि उत्तर प्रदेश हूँ" के पुरबिया गाँवों में अभी टेलीकाम क्रान्ति की बयार इतना खुलकर नहीं पहुंची कि बाँसपार में अंतर्जाल सुविधा का लुत्फ़ उठाया जा सके।

 

खैर, नया वर्ष मुझसे पूछ्कर तो आया नहीं, इसलिये इसके स्वागत में मैं कुछ नया न लिखकर कैलाश गौतम जी की एक ग़ज़ल ही ठेल देता हूँ। लगे हाथ बधाई देने का कोरम भी पूरा हो जायेगा, और न लिख पाने का अपराधबोध भी थोड़ा कम हो जायेगा।

 

नये साल की नई तसल्ली, अच्छी है जी अच्छी है,
दूध नहीं पीयेगी बिल्ली, अच्छी है जी अच्छी है।

बातों में मक्खन ही मक्खन, मन में कोई काँटे जी,
आँखों में ये चर्बी-झिल्ली, अच्छी है जी अच्छी है।

दाँत गिरे सिर चढ़ी सफ़ेदी, फ़िर भी बचपन नहीं गया,
पचपन में ये कुट्टी-मिल्ली, अच्छी है जी अच्छी है।

सूप सभा में चुप बैठा है, देख रहा है लोगों को,
चलनी उड़ा रही है खिल्ली, अच्छी है जी अच्छी है।

किसके सिर से किसके सिर, आ गई उछलकर झटके में,
रनिंग शील्ड हो गई दुपल्ली, अच्छी है जी अच्छी है।

रही बात इन गिरे दिनों में, टिकने और ठहरने की
भूसाघर में बरफ़ की सिल्ली, अच्छी है जी अच्छी है।

बारूदों, अंगारों, अंधे कुओं, सुरंगों, साँपों को,
झेल रही सदियों से दिल्ली, अच्छी है जी अच्छी है।

 

आप सभी को पुनः नव वर्ष की शुभकामनायें... मकर संक्रान्ति के पश्चात मुलाकात होगी।

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