सच्चा इस्लाम बनाम झूठा इस्लाम और चूतियों का वर्गीकरण

हमारी गँधाती राजनीति में मुल्ला मुलायम सिंह यादव जैसों के पास पूरी जौहर युनिवर्सिटी खड़े करने के पैसे हैं। लेकिन चालीस हजार संस्कृत पाठशालाओं के शिक्षकों को वेतन के नाम पर देने के लिये एक धेला नहीं है; अलबत्ता मदरसों की सालाना ग्रांट में एक से दो दिन की देरी नहीं होती। जबकि तुलना के तौर पर देखें तो पाठशालाओं में शास्त्र-स्मृति के साथ-साथ साहित्य, विज्ञान और कला भी पढ़ाई जाती है। जरा मदरसों के पाठ्यक्रम को रिवाइज करने की बात कर लीजिये- दंगे भड़क उठेंगे।

आजकल बहुत अजीब सी प्रवृत्ति देख रहा हूँ। पढ़े-लिखे मुसलमानों में भी कट्टरता व्याप्त होने लगी है। बी.टेक. कर रहे ब्राईट और प्रामिसिंग लड़के अगर पंद्रह अगस्त की सुबह नींद न खुल पाने की वजह से ध्वजारोहण में भाग न ले पायें, कोई बात नहीं, लेकिन वही शख्स अगर दिसम्बर के जाड़े में अलस्सुबह उठकर फ़ज़र की नमाज अता करने कैंपस से एक किलोमीटर दूर जाने में जरा भी न अलसाये तो ??

उसपर लोग कहते हैं कि शिशु मन्दिरों में आतंकवादी तैयार हो रहे हैं। मेरी शिक्षा-दीक्षा सरस्वती शिशु मन्दिर में हुई। संघ की शाखा में न सिर्फ़ गया हूँ, बल्कि एक शाखा का प्रशिक्षक भी रहा हूँ। स्वयंसेवक प्रशिक्षण वर्ग भी पूरा किया मैनें, और इस बात का गर्व है मुझे


लेकिन संघ की कई नीतियों से इत्तेफाक नहीं रखता हूँ। बजरंग दल, शिवसेना, श्रीराम सेना, और कभी कभी भाजपा की टुच्ची हरकतों पर जितना खून मेरा खौलता है, उतना नेट पर मौजूद इन मौलानाओं का नहीं खौलता होगा, मुझे इस बात का पूरा यकीन है। मुझे कोई तकलीफ़ नहीं होती यह बताने में, कि मेरे दोस्त उमैर की माँ मेरी माँ से अच्छी दाल बनाती हैं। मुझे उसके मुँह का निवाला छीनकर खाने में भी कोई गुरेज नहीं, क्योंकि मजहब से पहले मुल्क़ के बारे में वह भी सोचता है, मैं भी।

बीस दोस्त सर्दियों में वैष्णो देवी जाने का कार्यक्रम बनाते हैं। उनमें से एक जुनैद अहमद भी है.. शायद सबसे ज्यादा रोमांचित। इससे पहले कइयों के साथ पूर्णागिरि माता के दरबार भी जा चुका है।

होली में गाँव के शिवाले में आनन्दमग्न इजहार मुहम्मद के हाथों की थाप जब ढोलक पर पड़ती है, और मुँह से बोल फूटते हैं..”सिरी गिरिराज किसोरी, श्याम संग खेलत होरी”, तो वह मेरी नजर में तोगड़िया और उमा भारती जैसों से लाख दर्जे उपर उठ जाता है। बावजूद इसके कि वह पाँच वक्त का पक्का नमाजी है। इन्हीं जैसे मुसलमानों की जान बचाने के लिये मेरे पिता के नेतृत्व में ‘बाँसपार मिश्र’ गाँव के लोग योगी आदित्यनाथ और हिन्दू युवा वाहिनी के काफिले के सामने सीना तानकर खड़े हो जाते हैं। बावजूद इसके कि योगी के प्रखर राष्ट्रवाद के सभी कायल हैं, बावजूद इसके कि इजहार की ही क़ौम के किसी पिशाच ने 12 साल की बच्ची…………

लखनऊ महोत्सव 2005 में अहमद हुसैन-मुहम्म्द हुसैन बन्धुओं का कंसर्ट सुनने पहुँचता हूँ। चार घंटे दिसम्बर की ठंडी रात में ओस में भीगते हुए— “चल मेरे साथ ही चल, ऐ मेरी जान-ए-ग़ज़ल” जितना असर छोड़ता है, उससे कहीं ज्यादा तब, जब वे कंसर्ट की शुरुआत करते हैं गणेश वन्दना से- “गाइये गणपति जग वन्दन”। कंसर्ट के बाद मैं ऑटोग्राफ़ लेने के लिये अपनी डायरी आगे करता हूँ। हुसैन बन्धु अचकचा जाते हैं- उन्हें आदत नहीं है इसकी। अहमद हुसैन निरक्षर हैं, मुहम्मद को सिर्फ़ अपना नाम लिखने आता है, वह भी उर्दू में। पूछता हूँ- गणेश वन्दना कैसे पढ़ पाते हैं! बेहद शर्मीले अहमद हुसैन मुस्कराकर जवाब देते हैं- फारसी लिपि में लिखकर मुहम्मद ने याद किया, उन्हें करवाया।

ग़ुलाम अली हाजी हैं, लेकिन एक बार शराब जरूर पीते हैं- किसी कंसर्ट में कालजयी “हंगामा है क्यूँ बरपा” गाने से पहले। पूछने पर कहते हैं- बिना सुरूर के यह ग़ज़ल ऑडियंस को चढ़ेगी नहीं..। ग़ज़ल की शुरुआत में यह भी जोड़ देते हैं- “जाम जब पीता हूँ, तो मुँह से कहता हूँ बिस्मिल्लाह/ कौन कहता है कि रिन्दों को ख़ुदा याद नहीं”

स्वर्गीय उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ पाँच वक्त के पक्के नमाजी होने बावजूद संकटमोचन और बाबा विश्वनाथ के प्रेम में अपने सुर-पुष्प अर्पित कर सकते हैं, मौलाना कल्बे सादिक़ कुम्भ में डुबकी लगा सकते हैं, कलाम साहब गीता पढ़ सकते हैं तो आम भारतीय मुसलमान अपने चहक चूतिये* उलेमाओं (उल्लूमाओं) के चूतड़ों पर चार लात जमाकर एक समरस समाज की संकल्पना में भागीदार क्यों नहीं हो सकते? उनका इस्लाम कहाँ खतरे में पड़ जाता है?

मुझे कल्बे सादिक़ के भारतीयत्व पर कोई शक़ नहीं, शक़ है इन इस्लाम के रहनुमा बने हाजी याक़ूब क़ुरैशी, अन्तुले और रूबिया सईद जैसों पर।

रही बात ब्लॉगजगत की, तो सारा गुबार बस इतने से ही निपटाना चाहूँगा कि तीन ठलुओं की किताबें ‘स्क्रिब्ड’ पर अपलोड कर, मरे हुओं के इस्लाम कुबूलने की खबरें छापकर और किसी सनकी (खल)नायक की रटन्तु विद्या को यहाँ वहाँ से कॉपी-पेस्ट कर डालने से इस्लाम का घंटा भला नहीं होगा, इस्लाम का सच्चा भला चाहते हैं तो सहिष्णुता सीखें, अपने पिछड़े-अनपढ़ भाइयों को दुनियावी तालीम दें, और देश को मजहब से पहले रखना सीखें। और इतना जरूर याद रखें-

इन फ़सादात को मजहब से अलग ही रखो

क़त्ल होने से शहादत नहीं मिलने वाली


ठेलनोपरांत:

#1: यहाँ पर चूतियों का तीन प्रकार से वर्गीकरण किया गया है-

A) चहक चूतिया: जिसकी बातों से चुतियापा टपकता हो।

B) चमक चूतिया: जिसकी शक्ल से ही चूतियापा झलकता हो।

C) चटक चूतिया: जिसके अंग-प्रत्यंग में चूतियाप व्याप्त हो।

#2: जब यह पोस्ट पब्लिश होगी, तब मैं अपनी अग्रजा शाम्भवी के शुभ विवाह में व्यस्त हूँगा, अस्तु किसी प्रश्न-प्रतिप्रश्न का उत्तर नहीं दे पाऊंगा। आपसे निवेदन है कि प्लेटॉनिक आमंत्रण स्वीकार करें, तथा नवदम्पति को शुभाशीष दें- “अजितशाम्भवीभ्याम सर्वान देवान शुभाकरान


रोटी-पानी-बिजली-सड़क चाहिये, या पेशाब के बाद सुखाने के लिये ढेलों पर सब्सिडी ? (वहाबी आंदोलन के बहाने)

कल के ‘द हिन्दू’ में एक लेख पढ़ा। प्रसिद्ध विधिवेत्ता राम जेठमलानी ने नई दिल्ली में आतंकवाद पर हुए कानूनवेत्ताओं के एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में ‘वहाबी आन्दोलन’ और उग्रवाद में तार जोड़ने की कोशिश क्या की, सउदी राजदूत फैसल-अल-तराद ऐंठकर वॉकआउट कर गये। बाद में विधिमंत्री वीरप्पा मोइली को यह स्पष्टीकरण देना पड़ा कि यह भारत सरकार के आधिकारिक विचार न समझे जायें। पूरा लेख आप यहाँ पढ़ सकते हैं।

मैं ऐसे किसी विषय पर लिखना नहीं चाहता था, जिससे विवादों की बू आये। विगत कई दिनों से
ब्लॉगजगत में चल रहे काल-कलौटी (कीचड़-मिट्टी-गू उछालने) और ‘मैं’ की प्रवृत्ति को तुष्ट होते देख रहा था। हँसी आती थी कि इन्हें बचपन में मम्मी ने शायद ‘कॉम्प्लान’ नहीं पिलाया, तभी आज भी ‘बड़े’ (मानसिक रूप से) नहीं हो पाये। लेकिन अब तो हद ही हो गई। अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर भी अब कुट्टी-कुट्टी होने लगी।

दु:ख इस बात का है कि मोइली साहब को यह वाहियात स्पष्टीकरण देने की जरूरत क्यों आन पड़ी? मरहूम मुहम्म्द इब्न अब्द-अल-वहाब से ही धर्मचक्र प्रवर्तन की शिक्षा लिये उनके शागिर्द आज जो ‘क़त्ताल’, ‘कुफ़्र’, और जिहाद-जिहाद खेल रहे हैं, वह क्या किसी से छुपा है??

सुधारवादी आंदोलनों की प्रवृत्ति अंतर्मुखी होती है- होनी चाहिये। सनातन धर्म में सतत सुधार के लिये जगह है। व्यक्तिगत अवधारणाएं हैं। कुरीतियां भी हैं, भले ही ज्यादातर सामाजिक हों। इतना कुछ है, इसलिये सुधार भी हैं। स्वामी दयानन्द ने कभी कहा था- “हमारे समाज की परंपरा थी कि कुप्रथाओं को, ग़लत कार्य करने वालों को, कुरीतियों को सड़ी उंगली की तरह काट कर फेंक दिया जाता था। यह वाजिब भी था। जबसे हमने गलितांग को अपना ही अंग मानकर काट फेंकने से इनकार किया है, तबसे यह विष समूचे शरीर में व्याप्त हो गया है।”

लेकिन कभी इन कुरीतियों का जिम्मेदार बाहरी कारकों को मानकर अपना पल्ला झाड़ लेने की कोशिशें नहीं हुईं। कभी अपने को घोंघे के कवच में क़ैद कर दुनिया को अपना दुश्मन मानने का प्रयास नहीं किया गया।

लेकिन वहाबियों ने अपने धर्म के पिछड़ेपन का जिम्मेदार ख़ुद को छोड़कर पूरी दुनिया को माना। भारत में इनके इतिहास का विवेचन करें तो पता चलता है कि सिख राज्य, जिसके अंतर्गत ये आते थे, के खिलाफ़ इन्होंने जिहाद छेड़ा था। जीर्ण-शीर्ण सिख राज्य वैसे ही पतन की कगार पर था। अंग्रेजों के दो धक्कों में भहरा गया। पंजाब के विलय के बाद जिहाद का मुँह अंग्रेजी हुकूमत के ख़िलाफ़ मोड़ दिया गया, जिसकी वजह से इन्हें तथाकथित रूप से देशभक्ति का तमगा मिल गया। लेकिन जब सिखों से कई गुना सशक्त और परिमार्जित सैन्य वाले अंग्रेजों ने इन्हें कुत्तों की तरह दौड़ा कर मारना शुरु किया, तो बड़ी मुश्किल से इन्हें मस्जिदों में पनाह मिली। वहाबियों ने स्वधर्मियों पर भी कोई कम जुल्म नहीं ढाये। यहाँ तक कि पैगंबर मुहम्मद की क़बर भी खोद डाली गई, ताकि उसपर भी मजार न खड़ी हो जाय।

और इसी गौरवशाली(?) विरासत का दंभ भर रहे सउदियों को आईना दिखाना बहुत बुरा लगता है, क्योंकि उसमें उनकी सच्ची और विद्रूप शक्ल प्रतिबिम्बित होती है। मुस्लिम जगत को यह बात आँख-कान खोलकर देख-समझ लेनी होगी कि पेट्रो-डॉलर में आकंठ डूबे ये शेख-सुल्तान इस्लाम की तरक्की के लिये क्या कर रहे हैं?

ये माइल-हाई टॉवर बना रहे हैं, पॉम आइलैंड बना रहे हैं, शारजाह-अबूधाबी में बैठकर मैच फिक्सिंग के रैकेट चला रहे हैं, घुड़दौड़ में पैसे लगा रहे हैं, आदि आदि…

और मजहब की तरक्की के लिये सिमी और हूजी जैसे संगठनों को आर्थिक मदद से महराजगंज, सिद्धार्थनगर, आजमगढ़, लखीमपुर, बहराइच जैसे भारत-नेपाल सीमा से सटे इलाकों में धड़ाधड़ मदरसे खुलवा रहे हैं। ये मदरसे क्या सिखा-पढ़ा रहे हैं, यह ‘जगजाहिर रहस्य’ है। एक पूरी की पूरी पीढ़ी ख़म की जा रही है शाने-ख़ुदा में।

भले ही नाइजीरिया, अंगोला, सोमालिया में लाखों मुसलमान भूख से मर जायें, कोई शेख अल्लम इब्न सल्लम एक धेला वहाँ उनकी रोटी के नाम नहीं दे सकता वर्ल्ड फूड प्रोग्राम में। कहाँ चली जाती है ‘मुस्लिम हैं हम वतन है सारा जहाँ हमारा’ की इक़बालिया बाँग??

मुस्लिमों के पास विकल्प है- मुख्यधारा में आने का। लेकिन पहले उन्हें इन उलेमाओं को आईना दिखाना होगा। उन्हें तय करना होगा कि रोटी-पानी-बिजली-सड़क चाहिये, या पेशाब के बाद सुखाने के लिये ढेलों पर सब्सिडी छुई-मुई न बनें, सीना तान कर राष्ट्र की मुख्यधारा में शामिल हों। किसी अब्दुल कलाम को, अल्ला रक्खा रहमान को, ज़हीर खान, आसिफ इक़बाल को राष्ट्रभक्ति का प्रमाण देने की जरूरत नहीं है; किसी आम मुसलमान को भी राष्ट्रभक्ति का प्रमाण देने की जरूरत नहीं है। मुस्लिमों को यह प्रमाण अपने बात-बेबात फतवे देने वाले उलेमाओं और मुफ़्तियों से माँगना चाहिये।

एक ईमानदार कोशिश जारी है इंट्रोस्पेक्शन की। एक मर्द मोमिन है। खुद को उम्मी कहता है। खुलकर सामने आ जाये तो नेट पर मौजूद मौलाना लोग उसके सर पर भी ईनाम रख देंगे। लोग उसे काफ़िर तक कह गये, लेकिन डटा हुआ है। उस शख्स के हौसले को सलाम कीजिये…… हर्फ़-ए-ग़लत।

ठेलनोपरांत: एक पारिवारिक आयोजन में व्यस्तता के कारण अभी कुछ दिन अनियमित रहूँगा। यह पोस्ट भी स्वयं टाइप नहीं कर पा रहा, ।आपकी पोस्टों पर टिप्पणी तो दूर की बात है। क्षमाप्रार्थी हूँ।

एक बात और... गिरिजेश जी को धन्यवाद! हर्फ़-ए-ग़लत तक ले जाने के लिये

हजार रुपये का चालान, 45 रुपये की ब्रांडी और बर्फ़ का नामोनिशान नहीं…. लब्बोलुआब- मनाली मत जइयो गोरी राजा के राज में।

बहुत देर से सोच रहा था कि क्या शीर्षक रखूँ। फाइनली ये ग़दर शीर्षक दिमाग में भक्क से चमक उठा और हमने उसे यहाँ ला धरा।

सबको दुआ-सलाम। इतने दिन से गायब रहने के कारण दो थे- एक गोबरपट्टी में बसे अपने गाँव की यात्रा, दूसरी लौटते ही बर्फ़पट्टी© में बसे मनाली की यात्रा।

DSC00721असल में बारहवीं में गणित पढ़ने के जुर्म में बी.टेक. करने की जो सजा मिली, वो माशाअल्लाह ख़त्म होने के कगार पर है। तो हमने भी सोचा कि पारी के सेकेंड लास्ट ओवर में यार-दोस्तों के साथ कहीं घूम आयें। लेकिन पता नहीं किस बीरबावन घड़ी में प्रोग्राम बनाया था! सब कुछ फ़रिया जाने के बाद निकलने के एक दिन पहले किसी ब्लूस्टार कंपनी का नोटिस आया कि आपके कॉलेज के बी.टेक. बेरोजगारों की गिनती में कुछ कमी करने के इच्छुक हैं…. चिरंतन ग्रीष्म के पश्चात सावन की पहली फुहार की तरह आई प्लेसमेंट की आकांक्षा ने आर्थिक मंदी की मार में झुलसे दारुण, दुःख विगलित हृदयों पर अपनी कृपादृष्टि फेरी तो सालों के भूखे-नंगे अनप्लेस्ड बन्धु फेशियल कराके क्लीन शेव हो अपनी-अपनी सीवी में लिखाने लगे…To Carve a Niche In Your Prestigious Organization …..

DSC01113परम दलिद्दरई की घनघोर कालिमा में साक्षात भगवान अंशुमालि की तरह उदित इस दैदीप्यमान कंपनी के शुभागमन की सूचना ने 39 यायावरों की लिस्ट से 17 के पत्ते काट दिये। टूर तो कैंसिल होना नहीं था, बस पर-हेड बजट ड्यौढ़ा हो गया।

लेकिन इन सत्रह नसुड्ढों की हाय ऐसी लगी कि कस्सम से पूरा टूर सत्यानाश हो गया।

चरण १: बरेली से चंडीगढ़

बहुत आलीशान यात्रा रही। शहर से बाहर निकलते ही ग़दर ट्रैफिक जामDSC00777 मिला। तीन घंटे इस जाम में ही निकल गये। उसके बाद किसी तरह भोर होते होते बिजनौर पहुँचे, तो वहाँ से चंडीगढ़ की 200 किमी की यात्रा में ‘पंचाशीतेरधिकमपनीते तु वयसि’ ड्राइवर ने 10 घंटे लगाये। कुल मिलाकर शाम के पांच बजे पंचकुला के ‘गुरुद्वारा नाढा साहिब’ पहुँचे। अब इसे हमारी Austerity Drive समझिये या बजट बचाने की कवायद, 39 से 17 होते ही सारे पड़ाव होटल से गुरुद्वारों में, और सारे रेस्त्रां-भोज लंगर में तब्दील हो चुके थे।

खैर, दर्शन करने और प्रसाद पाने के बाद चंडीगढ़ घूमने निकले तो पता चला कि सारे गार्डन बंद हो चुके हैं। बचा एक सेक्टर घूमने का कार्यक्रम तो हमें बताया गया था कि सेक्टर सेवेनटीन घूमना, और यहाँ ड्राइवर अड़ गया कि उसे सिर्फ़ सतारा घुमाने को कहा गया था। बड़ी जद्दोजेहद के बाद पता चला कि पंजाबी में सत्रह को सतारा कहते हैं।

चंडीगढ़ में प्रसिद्ध है कि शाम को राशन से पहले ठेके की दुकान खुलती है, वो भी शेष भारत से लगभग आधे दाम पर। DSC00746फिर क्या था, सतारा में बस रुकते ही दिन भर के प्यासे चकोरों का झुंड लक्ष्य की तरफ भागा। स्वाति की पहली बूँद हलक के नीचे उतरी भी नहीं थी कि एक ठुल्ले (पुलिसवाले) ने सारे तृषार्त बन्धुओं को धर दबोचा। पता चला कि बेटा ये यूपी नहीं है जहाँ सड़क को शौचालय बनाओ या मधुशाला, कोई फ़िक्र नहीं। चंडीगढ़ में सार्वजनिक स्थानों पर धूम्र-मदिरा-पान पर सख्ती से रोक है। इस सच्चाई से रू-ब-रू होने में बच्चों के हजार-हजार रुपये लगे। फिर तो उन्होंने कितनी भी पी, नशा हुआ ही नहीं।

जिन्हें खाना था वे खाकर, और शेष लोग पीकर आगे की यात्रा के लिये सवार हुए। यह तय हुआ, कि लौटानी में समय रहा तो चंडीगढ़ फ़िर घूमेंगे।

चरण २: चंडीगढ़ से मनाली

लगभग 350 किमी की यात्रा ड्राईवर साब ने १० घंटे में पूरा करने का वचन दिया। सड़क बहुत बेहतरीन थी। रात में अहसास ही नहीं हुआ कि बस चल भी रही है। सुबह उठने पर पता चला कि वाकई चल नहीं रही थी। सबको सोता देखकर पेचिश-आंत्रशोथ आदि बहु-बीमारी पीड़ित ड्राईवर साब ने भी चार घंटे की नींद मार ली।DSC00799

हिमाचल के पहले जिले मंडी में एक ढाबे पर सुबह का नाश्ता इत्यादि करते हुए सभी शाम ५ बजे मनाली पहुँचे। भूख से आंते सिकुड़ गईं थी। होटल में नहा धोकर सब खाने-पीने निकले। लेकिन उन 17 नसुड्ढों की हाय ने यहाँ भी पीछा नहीं छोड़ा। पता चला कि एक प्रागैतिहासिक मंदिर का पुनर्निर्माण हुआ है, जिसके उपलक्ष्य में समूचा शहर बंद है और सभी लोग विशाल भंडारे में भोजन करेंगे। जिसे जल्दी है, या भंडारे में सड़क पर पालथी DSC00879मारकर सुबह से बिखरे हुए चावल-सब्जियों के ढेर में बैठकर नहीं खा सकता, वो भूखा मरे। वा ह रे गुंडागर्दी…….

सॉफीस्टिकेटेड लड़्कियों ने अखबार दिये- बैठने को भी, बिछाने को भी। तब जाकर कहीं युगों की क्षुधा शांत हुई। पर सच्ची में, खाना कतई चीता बना था। मजा आ गया। रात्रि विश्राम हुआ। तय हुआ कि अलस्सुबह रोहतांग के लिये निकल चलेंगे।

चरण ३: मनाली से रोहतांग

मनाली से रोहतांग करीबन DSC0089755 किमी दूर है। भारत और चीन के बीच प्राचीन रेशम मार्ग (Silk Route) का एक महत्वपूर्ण पड़ाव। भारत को तिब्बत से जोड़ने वाला दरवाजा- रोहतांग दर्रा। मनाली के आगे केवल विशेष टूरिस्ट बसें, ट्रैवेलर या स्कॉर्पिओ जैसी गाड़ियाँ जाती हैं। लगभग दो घंटे का रास्ता, लगातार चलते रहे तो।

रास्ते में एक जगह भू-स्खलन की वजह से रुकना पड़ गया। जेसीबी अपना काम कर रही थी। मेरी नजर आसपास के पत्थरों पर पड़ी। स्थानीय लोग इन्हें चाँदी के पत्थर कहते हैं। बेहद चमकदार सोने-चाँदी जैसे पत्थर, और DSC00999रेत भी उतनी ही महीन चमकदार। एस्बेस्टस और मैंगनीज से भरपूर। इतना ज्यादा मिनरल-कंटेंट कि पत्थर तो लगे ही नहीं। लोगों ने बताया कि अभी यहाँ कहाँ, असली खजाने तो लद्दाख में हैं। समझ में आया कि इस इलाके पर चीन की लार क्यों टपक रही है! सोचा कि एकाध पत्थर उठाकर घर ले चलूँ, लेकिन हिमाचल प्रदेश पर्यटन निगम इस मामले में बहुत सख्त है। यह सोचकर रख दिया कि कहीं लेने के देने न पड़ जायें।

मुख्य रोहतांग पर तो बर्फ़ के नामोनिशान नहीं थे। इससे ज्यादा बर्फ़ तो रास्ते में थी। जमे हुए झरने, नदियाँ। पता चला DSC00992कि चार दिन पहले उपर के पहाड़ों पर बर्फ़ गिरी है। फिर क्या था! नि कल लिये उपर की तरफ। वहाँ बर्फ के दर्शन हुए। पर्याप्त बर्फ़ थी। दो-एक घंटे बर्फ़ के गोलों से लड़ाई भी हुई। मन अघा गया लेकिन असलहे ख़त्म नहीं हुए।

जबर्दस्त ठंड थी वहाँ। चटख धूप में भी हाथ-पैर गल रहे थे। दो-चार भाई लोगों ने मनाली से ली हुई ब्रांडी के घूँट लिये, तो बर्फ़ हाथों में आकर पिघलने लगी। अपने साथ तो यह सुविधा भी नहीं थी..

DSC01082कहते हैं बी.टेक. 3 B के बिना अधूरा है। (B)ike, (B)eer, और (B)abe. वतन से इतनी दूर बाइक का तो सवाल ही नहीं पैदा होता। एक मोपेड थी तो वह घर पे जंग खा रही है। दूसरी B या उसके वैरिएंट आजमाने की हिम्मत आज तक नहीं हुई। रही बात तीसरी B की तो वो अभी अंडर-कंसिडरेशन है। तो मसला ये हुआ कि हम कोई रासायनिक क्रिया तो करते नहीं इसलिये भाई लोग हर दस मिनट पर मुझे हिला-हिलाकर चेक करते रहे कि भइया हो ना…….

सारी स्नो-फाइटिंग के पश्चात वापस मनाली लौटे। रात्रि विश्राम के पश्चात सुबह वापस चंडीगढ़ लौटने का कार्यक्रम था।

चरण ४: मनाली से बरेली

यात्रा के इस चरण में सुबह छः बजे निकलकर शाम 3 बजे तक चंडीगढ़ पहुँचने का कार्यक्रम तय था। फ़िर चंडीगढ़ घूमकर रात-बिरात बैक टू पैवेलियन लौटने का कार्यक्रम था। लेकिन बुजुर्गवार ड्राईवर की कृपा सेDSC01116 यह सब संभव नहीं हो सका। चंडीगढ़ पहुँचते पहुँचते फिर 5 बज गये। सौभाग्यवश एक पिंजौर गार्ड्न घूमने को मिल गया। और उन 1 7 नसुड्ढों की हाय फिर लगी। गुरुवार की वजह से सारे अच्छे सेक्टर बंद मिले। सो मन मसोसकर वापसी की यात्रा प्रारंभ हुई। चूँकि अगले दिन एक और बुकिंग थी, इसलिये जो रास्ता जाते समय 17 घंटे में तय हुआ था, वापसी में वही चंडीगढ़-बरेली मार्ग 9 घंटे में तय हुआ। लौट के फिर वही कॉलेज, फिर वही कुंजो-क़फ़स, फिर वही सैयाद का घर…

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ठेलनोपरांत: कल पता चला कि ब्लूस्टार ने जिन बच्चों को सेलेक्ट किया था, अब उनसे 25000 माँग रही है ट्रेनिंग के वास्ते। फिर उन्हे तीन महीने 10000 के भत्ते पर रखकर उनके टैलेंट को परखा जायेगा। फिर जो चीते बचेंगे, उन्हें नौकरी दी जायेगी। लब्बोलुआब ये कि वे सारे नसुड्ढ अब प छता रहे हैं कि घूम क्यों नहीं आये। हमें तो बस अटल जी की एक कविता की पहली लाइन याद आ रही है-

मनाली मत जइयो गोरी राजा के राज में..

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