पारिवारिक मूल्यों की संरक्षक एक आवारा मसीहा को अश्रुशेष श्रद्धांजलि..

गाँव आना हुआ। लोगबाग वही, धूर-धक्कड़ वही, पोखरे में काई भी उतनी ही, और उसमें नहा रहे महँगू के लौण्डों के बदन पर चीकट मैल भी उतनी ही.. लेकिन परिवार का एक अभिन्न सदस्य अनुपस्थित था। पीढ़ी-दर-पीढ़ी घृतकौशिक गोत्र: त्रिप्रवर: बाभन परिवार की रसोई जुठारते मार्जार वंश की चश्मो-चिराग़, मेरी अग्रजा की लाडली "मोनू की बिलार" परिदृश्य से गायब थी.. आशंका सच निकली.. माँ की जानकारी ने अद्यतन किया कि बिलार जीवन रंगमंच पर अपनी भूमिका निभा कर प्रभु चरणों को प्राप्त हुई। दुखित हृद्य को एक ठेलनीय सामग्री की भूमिका बँधती दिखी। नया न लिखकर डायरी के पुराने पन्ने पलटे। एक संस्मरण चेंप देना सही समझा।

ये पोस्ट तब लिखी थी, जब शीतलहर अपने अगले पिछले सभी रिकॉर्ड तोड़ने को बेकरार थी, परम आदरणीय नारायण दत्त तिवारी की बूढ़ी ख्वाहिशें की चीनी खतम होने का नाम नहीं ले रही थी.. और भगवान अंशुमालि कुहासे से युद्ध में इज़्ज़त का फालूदा करवाने को जरा भी उत्सुक नहीं नजर आ रहे थे.. तारीख जनवरी माह के उत्तरार्ध का कोई भी दिन मान लें।

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"अईसन जाड़ त कब्बो नाहीं परल बाबू".. नरायन महतो खँखार कर बोले। "बुझात बाटे जइसे ई सीत बाता तूरि के करेजवा में धंसि जाई.."

सच है, बहुत ठंड पड़ी इस साल। साल के पहले दिन सूरज ने अमर सिंह की तरह जो इस्तीफा दिया, सो पूरा महीना बीतने को आया, लेकिन नहिंये माने। गनीमत थी कि खिचड़ी के दिन दिख गये, वरना कुंभ में नहाने पहुंचे लोगों की आस्था का भ्रम टूटते देर न लगती। बहुतों ने नववर्ष का प्रथम स्नान खिचड़ी के ही दिन किया, और दूसरे स्नान की नौबत आज तलक नहीं आई।

कमबखत कुहरा लील गया कि डॉक्टर ने बेडरेस्ट की सलाह दे डाली। भगवान भुवनभास्कर बिलायमान हुए और बकौल के०पी० सक्सेना- "ठंड है कि किसी बूढ़े नेता की जिस्मानी हवस की तरह जाती ही नहीं"। असंख्य ऑक्टोजेनेरियन लोगबाग महाप्रयाण कर गये और अब भी लग रहा है कि पसलियाँ तोड़कर यह जाड़ा कलेजे में धंस जायेगा।

गेंहू की फसल पानी माँग रही है, लेकिन मौसम ऐसा नहीं हो पा रहा कि पानी चलाया जाय। बदली-कुहेसे-ओस में पाला मार गया तो? जनाउरों की हालत तो और गई गुजरी है। किसी छप्पर पे, बगीचे में बन्दरों को कुछ भी नहीं हासिल हो पा रहा। पत्तियां तक नोच-नोचकर खा गये, अब दूर-दूर तक कुछ भी नहीं। ठंड में कुड़कुड़ाते, एक टुकड़ा बेल पर सरवाइवल ऑफ द फिटेस्ट की जंग लड़्ते पेड़ों पर लटकायमान हैं।

उम्र के आखिरी पड़ाव पर चल रही घर की बिल्ली अपने पेट में ठंड लग जाने से परेशान है। सारा दिन कौड़े और चूल्हे के पास बिता रही है। जबतक चचेरे भाई-बहन छोटे थे, तबतक रोज ही उनका गिराया हुआ / उच्छिष्ठ दूध पीने को मिल जाया करता था। आदत इतनी बिगड़ गई कि रोटी-चावल का जायका ही अच्छा न लगे। सुबह पाँच बजे घर का दरवाजा खुलते ही दौड़कर बाहर से सीधे रसोई में.. अपने काम की चीजें ढूंढने में रत। माँ कहती है- "पूर्वजन्म में या तो इस घर की मलिकाईन रही होगी या कोई मुँहलगी कहाईन।" बड़ी बहन के आगे पीछे मँडराया करती। वह भी अम्माँ-बाबूजी की नजरों से बचाकर आलमारी से दूध-दही निकालते वक्त थोड़ा सा जानबूझकर गिरा देती। ग़ज़ब की सेलेक्टिव कंज्यूमर बिलार अगर दो दिन पुराना दही हो तो सूंघकर छोड़ देती। माँ चिढ़कर कहती- "इनके त सजाSव दही चाहीं" अम्मां को यह लगाव अच्छा नहीं लगता। वे बिल्लियों को धोखेबाज बतातीं। कहती हैं कि कुत्ते में स्वामिभक्ति होती है- "कुकुरा कहेला कि गोसैयां सलामत रहें कि कउरा पाईं, बिलरिया कहे कि गोसैयां आन्हर होखें कि एक्के में खाईं

विवाह के बाद बहन के ससुराल चले जाने के बाद बिल्ली का यह आखिरी मसीहा भी नहीं रहा। बेहतर भविष्य की तलाश में बिल्ली ने दूसरे घरों की तरफ पलायन किया। लगभग बीस-एक दिन बिल्ली नहीं दिखी। चिंतित होकर माँ ने दूसरे घरों में पता करवाया.. कोई सूचना न मिलने पर उदास मन से सबने यही माना कि उसकी इहलीला समाप्त हुई। लेकिन गाँव भर से मार-दुत्कार खाकर पुन: कंकालशेष बिल्ली वापस आई। और अब ये जाड़ा उसके प्राणों का ग्रहण बना हुआ है। चुल्हे और घर के अन्दर वाले कउड़े से शरीर तापकर किसी तरह जी रही है। हम लोगों के साथ तो बैठी रहती है, लेकिन बाबूजी के बैठने पर दूर हट जाती है। अब यह उनका लिहाज है या उनकी खड़ाऊं का भय, वही जाने।

तो भगवान भुवनभास्कर, बहुत हुई गुंडागर्दी.. अब चाहे पुरानी पार्टी में लौटिये या नई बनाइये। जो भी हो, एक विशाल जनसमूह प्रतीक्षारत है.. आइये, जनसभा को संबोधित कीजिये। किसी पीड़ित आत्मा की पुकार की एक बानगी पेश है-
वफ़ाओं के बदले जफ़ा कर रहा है
मैं क्या कर रहा हूँ तू क्या कर रहा है
कड़ाके की सर्दी है और तू कमीने
जनाजे पे मेरे हवा कर रहा है।


पुनश्च: बिलार जाड़ा तो खेप गई, लेकिन घर में काम करने वाली मतवा ने एक दिन उद्घोषणा की कि बिलार को दरवाजे पर एक पुआल के ढेर पर ब्रह्मलीन पाया गया।  

झंडूबाम, वेयो-हेयो, अनजाना..ऐ..ऐ..ऐ.., यानी जो ग़ज़ल माशूक के जलवों से वाक़िफ हो गई उसको अब बेवा के माथे की शिक़न तक ले चलो।


अच्छा गाना बनाया है रहमान साहब ने- जियो, उठो, बढ़ो, जीतो..! इसी के साथ कई और गीत भी आजकल रेडियो पर सुनने को मिल जाते हैं- "मुन्नी बदनाम", "पी लूं..", "अनजाना..ऎ..ऎ..ऎ", और न जाने क्या क्या। बाजार की भाषा में ये सब चार्टबस्टर हैं। युवाओं की जुबान पर चढ़े, उन्हीं की धुनों में रचे बसे। परफेक्ट यूथ मैटेरियल।

लेकिन इनमें सब्सटांस कहाँ है? जनता की तथाकथित माँग और पसंद को ध्यान में रखकर बनाये जाने की दुहाई देते ये गीत न सिर्फ इनके रचयिता गीत(?)कारों के बौद्धिक दीवालियेपन का सुबूत देते हैं, बल्कि एक पूरी पीढ़ी को बौद्धिक जड़ता के धीमे जहर से सुला देने की पूँजीवादी-बाजारवादी दुश्चेष्टा की अनुगूँज भी इन बे-बहर-ओ-ताल गानों में सुनाई देती है।

क्या हमारा युवा केवल किसी की साँसों की शबनम पीने और जिस्म ओढ़्ने को ही बेताब बैठा है, या किसी के प्यार में झंडूबाम हो जाना ही उसके समर्पण की पराकाष्ठा है ? मुझे ऐसा नहीं लगता, अन्यथा इन गीतों को देख-सुनकर मुस्करा देने वाले युवाओं के बाजू दुष्यन्त की कालजयी.. "हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिये" सुनकर नहीं फड़क उठते, भले ही उसे "हल्ला बोल" में कितने भी रॉक तरीके से पेश किया गया हो! यह तो बाजार की शक्तियां हैं, जो विश्व के विशालतम युवावर्ग को बौद्धिक आर्सेनिक पिलाकर चिर-शीतनिद्रा में सुलाये रखने पर आमादा हैं, ताकि इस बड़े उपभोक्ता वर्ग की नींद जब भी टूटे, तो एक बहुराष्ट्रीय उत्पाद खरीदने भर के लिये। विवेकानन्द की धरती पर पूरी एक पीढ़ी को पहले इस धीमे जहर के आगोश में सुलाना, फिर ऊर्जाहीनता के लिये रीवाइटल और क्लाउड-९ बेचना एक भद्दे मजाक के अलावा और कुछ नहीं। यही बाजार है जो "महँगाई डायन" जैसे अपील करने वाले गीत को भी डीजे मिक्स बनाकर नाइटक्लबों के अँधेरे में एलएसडी और टकीला के साथ कॉकटेल बनाकर बेच देता है। कभी सर्वहारा संगीत के बारे में सुना था। पता नहीं था क्या होता है यह? अब लगता है कि "महँगाई डायन" जैसा ही कुछ होता होगा। तो एलएसडी-टकीला-सर्वहारा संगीत का यह कॉकटेल बेहद मारक, बेहद बेचनीय साबित होता है। पूँजीवाद हर चीज, यहाँ तक कि अपने धुरविरोधी का भी बेहतरीन इस्तेमाल करना जानता है।

पीयूष मिश्रा का "जिस कवि की कल्पना में ज़िन्दगी हो प्रेमगीत, उस कवि को आज तुम नकार दो/भीगती मसों में आज फूलती रगों में आज आग की लपट का तुम बघार दो" इस सड़ांध में बादे-बहार की तरह आता है। प्रसून जोशी, स्वानंद किरकिरे भी प्राय: सार्थक गीत रचते नजर आते हैं। लेकिन इनकी बौद्धिक रचनायें वह प्रभाव नहीं पैदा कर पातीं, जो बड़वई के एक मुदर्रिस की "डायन" पैदा कर जाती है। किरकिरे का "देस मेरा रंगरेज ये बाबू" वो भदेसपन नहीं पैदा कर पाता, फिर भी असंख्य बौद्धिक अफीमचियों की जमात में ये इक्के-दुक्के नाम पूरे होशो-हवास में नजर आते हैं।

चिरकाल से भारतीय संगीत ईश्वर और प्रेम के इर्द-गिर्द घूमता आया है। बेहतरीन गजलगो और कवियों-शास्त्रीय गीतकारों की यह धरती स्वाभाविकत: श्रृंगार के लिये ही लिखती-रचती रही है। लेकिन प्रेम की रूमानियत को इस बाजार ने बेहद भद्दे तरीके से बेचना शुरु कर दिया है। युवा भावनाओं की अभिव्यक्ति के नाम पर रचे कुछ सार्थक गीतों में भी एक विक्रयवाद का पुट नजर आता है। विडंबना तो यह है कि संस्कार और सभ्यता के नाम पर हम जिस पाश्चात्य संगीत का आज तक धुरविरोध करते आये, उसने "Give Me Freedom, Give Me Fire" जैसे जज़्बे से भरे गीत रचे। वहीं हमारे अंतर्राष्ट्रीय ख्यातिलब्ध संगीतकार काँख-कूँखकर "लागी रे अब लागी रे लगन, जागी रे मन जीत की अगन" जैसी बेहूदा पंक्तियों पर टिक जाते हैं। विकल्पहीनता की स्थिति में वेयो-हेयो जैसे निरर्थक शब्दों का प्रयोग करने वाले इस निहायती गैर-भारतीय मुर्दा सपरेटे गीत में थोड़ी ऊर्जा तब प्रतीत होती है, जब पंजाबी ढोल नगाड़ों की बीट्स सुनाई देती है। मार्केटिंग बुरी चीज नहीं, बशर्ते सही चीज की सही ढंग से की जाये। जबर्दस्त मार्केटिंग हुए "वाका वाका" में खूबसूरत शकीरा के परालौकिक नृत्य के अलावा "You Are A Good Soldier Chosing Your Battle" जैसी खूबसूरत पंक्तियां भी थीं। और हमारी मार्केटिंग "मुन्नी बदनाम" पर आकर रुक जाती है।

बाजार का डर स्वाभाविक है। यदि यह विशाल युवाऊर्जा जाग उठती है, तो सबसे पहले सदियों के इस औपनिवेशिक-नवऔपनिवेशिक, पूँजीवादी-नवपूँजीवादी शोषण का हिसाब माँगेगी। इस्लिये इसके सोये रहने में ही बाजार की भलाई है। लेकिन यदा-कदा युवा भावनाओं को आवाज़ देते "ये हौसला कैसे झुके", "लक्ष्य", "लेफ्ट राइट लेफ्ट" जैसे गीत भी आते रहने चाहिये। ढाई सौ सालों से सोई "द ग्रेट इंडियन एनर्जी" को जगाने के लिये विवेकानन्द के अलावा सीनों में आग जलाने वाले दुष्यन्त और "आज हिमाल तुमन को धत्यूछ" की पुकार देने वाले गिर्दा की भी जरूरत पड़ेगी। नजीर-दिनकर-धूमिल की इस जमीन पर यह बौद्धिक शीतनिद्रा लंबी तो है, लेकिन चिरस्थायी नहीं। तभी तो कहीं से विद्रोह फूट पड़ता है-

भूख के अहसास को शेरो-सुखन तक ले चलो
या ग़ज़ल को मुफ़लिसों की अंजुमन तक ले चलो
जो ग़ज़ल माशूक के जलवों से वाक़िफ हो गई
उसको अब बेवा के माथे की शिक़न तक ले चलो। 
      
ठेलनोपरांत: पुख्ता खबरें हैं कि बिरजू महाराज सहित अन्य छ: विख्यात शास्त्रीय नर्तकों, जिन्हें कॉमनवेल्थ थीम सांग पर परफ़ारमेंस देनी थी, उन्होंने बोल में परिवर्तन के अनुरोध को रहमान द्वारा अस्वीकार कर देने के बाद प्रस्तुति न देने का फैसला किया है। अब शायद उनके दबाव में आकर प्रसून जोशी व रहमान ने गीत के बोल व धुन में थोड़ा बदलाव किया है। वस्तुस्थिति तो २३ को पता चलेगी, वैसे मुझे कोई खास उम्मीद नहीं नजर आती।  

चरण चुंबन और Saving Own Ass से अच्छा है तथाकथित "घटिया" निर्णय लेना..



कुछ दिनों पूर्व ब्लॉगिंग में मेरे पथ-प्रदर्शक सिद्धार्थ जी का एक लेख व्यापक बहस का मुद्दा बना था। मैं मैदाने-जंग से एज-यूजुअल अनुपस्थित था। अब सोच रहा हूँ अपना पक्ष रखके भागते भूत की लंगोटी तो सहेज ही लूँ.. क्या पता  कॉमनवेल्थ गेमों में जो इज्जत नीलाम होने वाली है, उस समय अपनी इज्जत ढंकी रह जाये। 

प्रश्न यह है कि जिन प्रोफ़ेश्नल डिग्री धारकों, जैसे इंजीनियर, डॉक्टर आदि को प्रशासनिक क्षेत्र में आने से रोकने की बात की गई है, उन्होंने अपने प्रोफेशन का चयन किन परिस्थितियों में किया। मेरी व्यक्तिगत मान्यता व अनुभव यह है कि दसवीं के विद्यार्थी की शारीरिक-मानसिक परिपक्वता के कितने भी दावे कर लिये जायें, वस्तुस्थिति यही होती है कि प्लस टू के स्तर पर विषय चयन में उनका सबसे बड़ा प्रेरक तत्व संगी साथियों की अभिरुचि ही होती है। खासतौर पर गोबरपट्टी, उसमें भी मध्यम-निम्न मध्यमवर्गीय माता-पिताओं की दमित आकांक्षायें होती हैं कि उनका बेटा या बेटी इंजीनियर डॉक्टर बने। ये फ्रॉयडीय दमित इच्छाएं भी हो सकती हैं, लेकिन वर्तमान सामाजिक परिवेश में आर्थिक सुरक्षा की दृष्टि से इस प्रवृत्ति की सीधी आलोचना किया जाना भी श्रेयस्कर नहीं है।

तो बचपन से ही जहाँ बच्चे को यह सिखाया जा रहा हो कि बेटा अगर अंकल पूछें कि क्या बनोगे? तो बोलना इं..जी..नि..य..र.., या बेटी के केस में डॉक्टर।वहाँ वह बच्चा दसवीं तक आते आते अपना मानसिक स्तर इनके परे सोच सकने तक उठा ले, तो यह उसकी प्रबल इच्छाशक्ति ही होगी, कोई सामान्य परिस्थिति नहीं। तिसपर उसके सभी हमउम्र साथियों की यही सोच... इस भेड़ियाधसान में उसे कहाँ स्कोप है निरपेक्ष भाव से अपने कैरियर संबंधी निर्णय ले पाने का, या अन्य विकल्पों के बारे में सोच सकने का। यही विकल्पहीन की गई जनता ही जब आंखें मूंदे बंसल, फिटजी, आकाश के प्रश्नों के घोटे लगाये प्रथम-द्वितीय या तृतीय श्रेणी के कॉलेजों में दाखिला ले लेती है, और जब सत्य का साक्षात्कार होता है तो उनके हाथों के तोते उड़ जाते हैं। मेरे पास आज भी दोस्तों के एसएमएस आते हैं- " निगाह आज तलक ढूंढती है उस आदमी को, जिसने कहा था बी.टेक कर लो- बड़ा स्कोप है।"

एकाध बिरले कॉलेजों को छोड़ दिया जाय तो लगभग सभी इंजीनियरिंग कॉलेज इतनी सड़ांध मारती शिक्षा पद्धति से जुड़े हैं, जहाँ छात्र का चार वर्षीय कार्यक्रम बन जाता है येन-केन-प्रकारेण बैक बचाना। शिक्षकों के आगे-पीछे घूमकर, चरण-चुंबन के द्वारा इन्टर्नल जुटाना ताकि ग्रेड प्वाइंट/ परसेंटेज ठीक-ठाक बन सके। फ़िर इधर उधर से चुराये आइडिया को किसी तरह प्रोजेक्ट के रूप में पूरा करना। एकाध आईआईटी को छोड़ दें तो कहीं नवाचार, अनुसंधान पर कोई बल नहीं। स्मार्टनेस के नाम पर अभिरुचि घटियापन के सबसे निचले स्तरों को पार कर जाती है, ये सब इस प्रणाली के एड-ऑन हैं।  

कम्पनियों की भी यही परिस्थिति है। अधिकतम उदासीन और बॉस-चरणसेवी बनकर हर कोई “Saving Own Ass” में लगा हुआ है। आप बताइये- एक महात्वाकांक्षी, चुनौती स्वीकारने वाला और प्रतिभाशाली युवा अब क्या करे? इनमें वे विकल्पहीन भी होते हैं, और तुलनात्मक रूप से जानबूझकर यहाँ फ़ंसे युवा भी, जिनके सामने इस सेक्टर की हक़ीकत अब उजागर हुई है। अब अगर इसी सेक्टर में रहना है तो धीरे से विदेश की राह पकड़ लो.. तब भी लोगों की आलोचना का शिकार बनना है। भारतीय कंपनियां इन्फोसिस, टीसीएस, टेक-महेन्द्रा, एयरटेल, रिलायंस आदि सभी कर्मचारियों के लिये यातना शिविर बनी हुई हैं.. क्यों इन कंपनियों को अमेरिका में “Body Shops” कहकर हिकारत भरी नजरों से देखा जाता है, कारण यहाँ की व्याप्त घटिया कार्यसंस्कृति है जो किसी महात्वाकाँक्षी युवा को संतुष्ट कर पाने में असफल है। उपभोक्ता संतुष्टि के मामले में सेपिएन्ट, एसेंचर जैसी कम्पनियों की तुलना मॆं हमारी कम्पनियां कहाँ ठहरती हैं?

तो दूसरा विकल्प बचता है कैरियर स्विच करने का, और समझदार लोग वह करते भी हैं। आप फाउल नहीं रो सकते.. वे गैर विज्ञान विषय, जैसे दर्शन-लोकप्रशासन-समाजशास्त्र-मनोविज्ञान, यहां तक कि हिन्दी-उर्दू-पालि लेकर इन्हीं विषयों के ग्रेजुएट-पोस्टग्रेजुएट से स्पर्धा करते हैं और सफल होते हैं। आप इन्हें रोकने की वक़ालत क्यों करते हैं? संरक्षणवादी प्रवृत्तियां छोड़िये, मुक्त प्रतिस्पर्द्धा का जमाना है।

दूसरा प्रश्न उठा सामान्यज्ञ बनाम विशेषज्ञ का । आप तेजी से बदलती परिस्थितियों के सन्दर्भ में देखें, खासकर नब्बे पूर्व और आज। आर्थिक सुधारों, वैश्वीकरण से पूर्व प्रशासन की चुनौतियां क्या थीं, और अब क्या हैं? साइबर क्राइम, पर्यावरण संरक्षण, ई-वेस्ट, आपदा प्रबंधन, आर्थिक अपराध, ग्राहकोन्मुखता, आर्थिक अपराध, जल संसाधन प्रबंध, सूचना क्रांति, ई-गवर्नेंस, डिजिटलीकरण, पेपरलेस ऑफिस आदि प्रमुख प्राशासनिक चुनौतियां और दायित्व नब्बे से पूर्व कहां थे? आज ये लोकसेवा का बहुत बड़ा कार्यक्षेत्र निर्मित करते हैं, और प्रशासन में विशेषज्ञता की माँग करते हैं। लक्षण तो यही बताते हैं कि सामन्यज्ञों के दिन बस लदने वाले हैं। समान विषय लेकर चयनित व साक्षात्कार में पहुँचे दो अभ्यर्थियों, जिनमें से एक वैज्ञानिक पृष्ठभूमि का है और दूसरा गैर वैज्ञानिक पृष्ठभूमि का.. में से चयन करने में आयोग को कोई समस्या नहीं होती। और यहाँ प्रश्न यह नहीं है कि एक बी.टेक. या एमबीबीएस बंदा किसी बीए-एमए का हक़ मार रहा है, बल्कि उपलब्धि यह है कि देश को एक योग्य प्रशासक मिल रहा है, जो समस्या निदान (Troubleshooting) में ज्यादा सक्षम है। इंजीनियर मुख्यमंत्री द्वारा शासित बिहार का विकास मॉडल, जो दशकों से पिछड़े राज्य को 11.5% की विकास दर तक पहुँचाता है, या अपराधियों का आधुनिक डाटाबेस इस्तेमाल करने वाली यूपी पुलिस, जो इस कार्य के लिये लखनऊ के पूर्व एसएसपी नवनीत सिकेरा(बी.टेक) की शुक्रगुजार है, या फिर रानीखेत के ज्वाइंट मजिस्ट्रेट डॉ. अडप्पा कार्तिक, जो हर हफ्ते वहाँ की गरीब पहाड़ी जनता के लिये मुफ़्त चिकित्सा शिविर आयोजित करते हैं... ये सब बदलाव की खुशनुमा हवा के झोंके हैं। इनसे वंचित कराना किसी के साथ न्याय नहीं होगा.. न तो इन प्रतिभाओं के लिये, न ही पहले से ही भ्रष्टाचार, लालफीताशाही और सदियों पुराने नियम कानूनों में जकड़ी अफसरशाही के लिये।

मौज में: वैसे भी इनके प्रशासन में आने से इंजीनियरिंग सेक्टर का कुछ बिगड़ने वाला नहीं। नैस्कॉम के सर्वे के मुताबिक नये नवेले पास-आउट में से लमसम 80% किसी तकनीकी नौकरी के लायक नहीं होते।        



नींद क्यों रात भर नहीं आती... कैम्पस में आखिरी रात, आखिरी पोस्ट

रात बीत रही है। ज़िन्दगी में पहली बार ऐसा हो रहा है कि बीतती हुई रात अच्छी नहीं लग रही। रात के ढाई बजे बालकनी में खड़े हुए जी में बस ये आ रहा है कि सॉफ्टपीडिया सर्च करूँ, शायद कोई ऐसा सॉफ्टवेयर मिल जाये जो इस बेरहम रात को बीतने से रोक ले, या कम से कम धीमा तो कर ही दे,,

बहुत से पल जेहन में आते हैं, लमहे भर की कौंध चमक जाती है आँखों में और फिर धीरे-धीरे सब कुछ खो जाने का अहसास तारी होने लगता है। कॉलेज इतना अच्छा कभी नहीं लगा। रैगिंग से फेयरवेल तक की यादें न्यूज़रील की तरह सामने से गुज़र रही हैं और कमबख्त दिल यह मानने को तैयार नहीं कि यह इस कॉलेज, इस कैम्पस में मेरी आखिरे-शब है।

कल ईशान की एक मेल मिली। एक बच्चे की कहानी थी, जिसकी माँ किसी फर्म में काम करती थी। शाम को जब लौटी, तो दरवाजे पर खड़े बच्चे ने पूछा- "माँ, तुम्हारी एक घण्टे की सेलरी कितनी होती है?" माँ ने हिसाब लगाकर बताया- 50 रुपये| बच्चे ने कहा- "क्या मुझे 25 रुपये मिल सकते हैं?" थोड़ा ना-नुकर करने के बाद माँ पैसे दे देती है। बच्चा दौड़कर जाता है और अपने कमरे में तकिये के नीचे से जमा किये हुए कुछ मुड़े-तुड़े नोट निकालता है। माँ का चेहरा तमतमा जाता है। वह डाँटते हुए कहती है "मेरी दिनभर की मेहनत के बाद थके हुए घर आने पर तुम मुझसे पैसे माँगते हो.. शायद कुछ खिलौनों के लिये.. वो भी तब, जबकि तुम्हारे पास पहले से ही पैसे हैं.. शर्म नहीं आती तुम्हें?"

बच्चा कहता है- "मेरे पास 25 पहले से थे, 25 तुमने दिये.. यह लो माँ, तुम्हारे एक घंटे की कीमत.. क्या तुम कल एक घंटा पहले घर आ सकती हो, तुम्हारे साथ कुछ वक़्त चाहिये।"

ब्लॉगिंग मेरी हॉबी है, लेकिन मेरे दोस्त मेरा पैशन। कोर्स के आखिरी कुछ दिन अपने दोस्तों को पूरा वक़्त दे सकूँ, इसलिये पिछली पोस्ट के बाद ब्लॉगिंग को अल्पविराम देने का निर्णय ले लिया। कल की यह मेल मिलने के बाद लगा, कि मेरा निर्णय ग़लत नहीं था।

और ये रात.. कई दिनों के बाद आज मौसम बहुत खुशगवार है। तेज पुरवाई चल रही है। गर्मियों में इससे अच्छे मौसम की उम्मीद नहीं की जा सकती। काश यह रात एक उम्र भर चलती। काश अगली सुबह कभी न होती। आखिर क्यों बदलता वक़्त ऐसे मुक़ाम पर लाकर खड़ा कर देता है, जहाँ सारी कोशिशों के बाद भी यह हक़ीकत झुठलाई नहीं जा सकती, कि बस एक क़दम और.. और फिर लौटकर आना न होगा। और यह जानने के बाद भी यह क़दम उठाना मजबूरी क्यों बन जाता है?

आखिरी वाइवा के दौरान राहुल कहता है- "यार ज़िन्दगी तो डीजे(आमिर खान, रंग दे बसंती) की तरह होनी चाहिये। डिग्री पूरी होने के दो साल बाद भी कॉलेज में पड़े हुए हैं। क्यों? क्योंकि यहाँ अपनी "औक़ात" है.." मेरे चेहरे पे मुस्कान तैर जाती है। काश यह सच हो सकता।

क्या तो नहीं किया इन चार सालों में, अपार्ट फ्रॉम स्मोकिंग एंड ड्रिंकिंग। गानों की उल्टी-सीधी पैरोडी बनाना, चीफ वार्डेन के सामने सिर झुका के खड़े रहना। विवेक के साथ बतियाते हुए सुबह हो जाना (वेन्यू- बाथरूम)। अली-मिश्रा-मुर्गा-माथुर-शेट्टी के साथ विवादास्पद मुद्दों पर रात भर चलने वाली असंसदीय बहस। Life In SRMS बनाना। सुबह तीन लेक्चर बंक करके चौथी लेक्चर अटेंड करने पहुँचना। पता चलने पर कि फ़ैकल्टी ऐब्सेंट है, उल्टे पाँव लौट आना। नतीजतन शॉर्ट अटेंडेंस का फाइन देना, पिता की डाँट सुनकर रेगुलर हो जाना, पैसे वापस मिलना। अगले सेमेस्टर में फिर शॉर्ट। तोड़-फोड़ करने के जुर्म में एक महीना हॉस्टल से बाहर रहना। वॉर्डन के फर्जी सिगनेचर मारने पर पूरे सेमेस्टर गेटेड रहना। फ्रस्टेशन में प्रोजेक्ट लैब में बैठकर पूरे डिपार्टमेन्ट को गालियाँ देना। पूरे मुस्लिम बाहुल्य इलाके में एकमात्र हिन्दू कौशल के ढाबे पर खाना। एक सेमेस्टर के बाद पता चलना कि उसका नाम कौशल नही क़ौसर है- क़ौसर मुहम्मद। लेकिन उसके हाथ के बने खाने के जायके के आगे भाड़ में गई पंडिताई..।

दोस्ती का पहला उसूल तोड़ने का मन करता है। जी में आता है हर दोस्त से गले मिलकर उसे "थैंक-यू" बोलूँ। यह जानते हुए भी कि दोस्ती में "थैंक-यू" नहीं बोलते। लेकिन जिन दोस्तों के साथ यह खूबसूरत चार साल बीते हैं, उनका क़र्ज़ कैसे चुकेगा?

"थैंक-यू" दोस्तों, इस कॉलेज को चार साल साथ में झेलेबल बनाने के लिये..

"थैंक-यू" पंकज, इस कॉलेज को घर जैसा अहसास देने के लिये। "थैंक-यू" विवेक, मेरी अंतहीन बकवासें सुनने के लिये।

"थैंक-यू" नंदी, हर शाम मेरे साथ कौशल भाई को तकलीफ देने चलने के लिये..।

"थैंक-यू" अली भाई उन सारी गरमा-गरम बहसों के लिये, जो किसी भी वक़्त हाथापाई में तब्दील हो सकती थीं..।

"थैंक-यू" साबू, गौरव, अन्ना, देवांश, सिद्धार्थ, प्रज्ञा, सौम्यता, श्रुति और असंख्य जूनियर्स, मुझे अपने बड़े भाई सा स्नेह देने के लिये।

"थैंक-यू" तन्वी, सौम्या, वन्दना, कीर्ति, मेरी सारी बर्थडे पर कार्ड बनाने के लिये, ट्रीट में गाने गाने के लिये।

"थैंक-यू" जागृति, इस पूरे 4 सालx365 दिनx24 घंटे मेरा साथ देने मौजूद रहने के लिये।

कितनी उम्मीदें, कितने अरमान लिये हम ज़िन्दगी से दो-दो हाथ करने का हौसला पाले रखते हैं। अब सामने मुँह फाड़े असल ज़िन्दगी दिखती है तो डर लगता है कि तुम्हारे बिना कैसे जूझ सकूँगा इससे??

विचार गड्ड्मड्ड हो रहे हैं। शब्द संयोजन बिगड़ रहा है। अब बंद करता हूँ। पैकिंग करनी है। कैम्पस से आखिरी पोस्ट है। देखते हैं असल ज़िन्दगी रूमानियत का कितना हिस्सा सोख लेती है..! कुछ लाइनें याद आ रही हैं..







वक़्त की क़ैद में ज़िन्दगी है मगर / चन्द घड़ियाँ यही हैं जो आज़ाद हैं
इनको खोकर मेरी जानेजाँ / उम्र भर न तरसते रहो
आज जाने की ज़िद न करो.. यूँ ही पहलू में बैठे रहो..

बाद में: यह पोस्ट आलोक के लिये.. इस उम्मीद में कि अगली पोस्ट भी जल्द कर सकूँगा। 

संस्कार, सभ्यता, बाजारीकरण, नैतिकता की ठेकेदारी, और वैलेंटाइन डे के बहाने एक सच

अपने गिरिजेश जी तो फगुनाहट में सराबोर हैं, उन्हें बखूबी साथ मिल रहा है अमरेन्द्र भाई का, तथा हिमांशु भाई का। कौन आचारज है, कौन चेला, कुछ भी क्लियराय नहीं रहा। जो भी हो, यह मंडली लगभग हर दूसरे ब्लॉग पर जोगीरा सरररर करते दिख जा रही है। ब्लॉग जगत का आपसी मनमुटाव और वैमनस्य भी मिट जाय इसी फागुन में, मेरी यह कामना है। जो भी हो, भाई लोग पूरे जोर शोर से श्रृंगार (सही वर्तनी नहीं) रस भांग की ठंडई में घोलकर सबको पिलाने में आमादा हैं।

सही है, पिछले वर्ष का फागुन माह तो वीर रस से ओतप्रोत था। मंगलौर में पबगामिनी बालाओं पर संस्कृति के रक्षकों के शौर्य प्रदर्शन से लगायत बाबा वेलेंटाईन की जयंती पर प्रेमाबद्ध जोड़ों को फोकट में परिणयसूत्र आबद्ध करने जैसे लोकमंगल के कार्यक्रमों ने इस माह को सात-आठ चाँद लगा दिये थे। प्रत्युत्तर में संस्कृति की भक्षक कुछ महिलाओं ने संस्कृति के रक्षकों को पिंकवर्णी परिधान भेंट किये.. अब ये तो श्रीराम जानें कि उनके सेनानियों ने उन वस्त्रों का क्या किया, लेकिन छौ-सात दिन न्यूज चैनल वालों ने जमकर चाँदी काटी।

उसी श्रीराम सेना के प्रमोद मुथालिक आजकल एक नया कैम्पेन चला रहे हैं.. वेलेंटाइन डे के दिन शौर्य की बजाय बौद्धिकता के द्वारा प्रेमी जोड़ों का मोहभंग करने की कोशिश की जा रही है। उन्हें समझाया जा रहा है कि ये ससुरे डे वे सब बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की मार्केटिंग का हिस्सा हैं, और कुछ नहीं। गुरुजी बौद्धिक रस का पान करा ही रहे थे, कि कुछ शरारती तत्व जोगीरा सरररर कहते हुए स्टेज पर चढ़ गये और गुरुजी के मुखारविन्द पर होली है के अंदाज में धई के करिक्खा पोत कर त्वरित गति से बिलायमान हो गये। कसमसा के रह गये गुरुजी।

मेरी व्यक्तिगत अवधारणा यह है, कि इस मामले में लगभग सभी पक्ष बराबर के दोषी हैं.. लड़कियाँ शराब पीकर अपनी सेहत खराब करें या जो भी करें, इससे प्रमोद भईया को काहे चुल्ल मच रही है भाई? अपने बच्चन जी की पंक्तियाँ सुना देनी थीं-

सोम सुरा पुरखे पीते थे, हम कहते उसको हाला 
द्रोणकलश जिसको कहते थे, आज वही मधुघट आला| 
वेदविहित यह रस्म न छोड़ो वेदों के ठेकेदारों 
युग युग से है पुजती आई नई नहीं है मधुशाला||


मेरा लक्ष्य दारूबाजी का समर्थन नहीं है, बल्कि इस बात का है कि कुछ लोग यह तय नहीं कर सकते कि अन्य लोगों की जीवनशैली क्या हो..!

पिंक चड्ढी कैंपेन हो या मुथालिक जी की फेस-पेंटिंग.. दोनों ग़लत चीज का ग़लत तरीके से विरोध था.. एक आज़ाद मुल्क़ भी विरोध प्रदर्शन के सभ्य तरीके अपना सकता है/अपनाना चाहिये/अपनाने को बाध्य किया जाना चाहिये। लेकिन इस बारे में मुथालिक फाउल खेलने का रोना नहीं रो सकते.. उनके खुद के तरीके बेहद ग़लत थे। मुँह पर कालिख पोतना या चड्ढियाँ भेजना अकेली लड़कियों पर हाथ उठाने से तो कम शर्मनाक है..

जहाँ तक वेलेंटाइन डे का सवाल है, निश्चित रूप से यह दिन बाजारवादी सभ्यता की देन है, जो रिश्तों को भी करेंसी में भुनाना चाहती है। पश्चिमी परिदृश्य में निरंतर खोखले हो रहे रिश्तों, किशोरों में बढ़ रहे माँ-बाप और घर से अलग रहने का ट्रेंड, बिना कमिटमेंट के रिश्ते, और दीर्घकालीन संबंधों से अरुचि जैसे अगणित कारक हैं, जो मदर्स-डॆ, फादर्स-डे, और वेलेंटाइन-डे जैसे दिनों को मनाने का मूल बनते हैं। उनके परिप्रेक्ष्य में यह ग़लत नहीं ठहराया जा सकता।

भारतीय सभ्यता तो हर दिन कोई न कोई त्यौहार मनाती है, न मानें तो पंचांग उठाकर देख लीजिये। ऐसे में माँ-पिता के सम्मान के लिये कोई विशेष दिन अलाट करने जैसी कोई बात नहीं हो सकती। लेकिन वेलेंटाईन-डे के साथ भी क्या ऐसा ही है, खुद से पूछिये।

लगभग पूरे देश, खासतौर पर उत्तर भारत में ऑनर किलिंग जैसी घृणित मध्ययुगीन परिपाटियाँ न सिर्फ़ जीवित हैं, बल्कि फल-फूल रही हैं.. तथाकथित ओपेन-माइंडेड वर्ग में भी। ब्लॉग लिखने-पढ़ने वाले लोग ज्यादातर बुद्धिजीवी होते हैं (कोई व्यंग नहीं, यह सामान्य मनोवृत्ति है), लेकिन आप में से कितनी बड़ी बेटियों के बाप अपने लड़कियों के विपरीत लिंगी मित्रों से सहज महसूस करते हैं..? कितने घरों में स्कूल/कॉलेज खत्म होने के एक या अधिक घंटे बाद घर लौटने वाली लड़की को संदेह की नजरों से नहीं देखा जाता..? फोन पर जरा सा भी मुस्कुराकर बात करती लड़की को देखकर किसके दिमाग में शक का कीड़ा नहीं कुलबुलाता..? अजी छोड़िये, अगर रात के 11 बजे या उसके बाद लड़की के फोन पर मिस्ड कॉल आ जाये, तो कितने पैरेंट्स हाइपरटेंशन का शिकार हो जाते हैं..! गिरिजेश जी भी यह बात स्वीकार कर चुके हैं, कि स्कॉलर बिटिया समय निकालकर ‘फाइव प्वाइंट समवन’ पढ़ लेती है, जबकि वे यह नहीं तय कर पाते हैं कि उसे ‘मुझे चाँद चाहिये’ पढ़नी चाहिये या नहीं..!

मैं नारी-मुक्ति आंदोलन की वक़ालत नहीं कर रहा/मेरे अंदर इतना बूता भी नहीं.. लेकिन हिन्दीभाषी, और खासकर गोबरपट्टी के माँ-बाप अपनी लड़कियों को आज भी आज़ादी देने के पक्षधर नहीं, बल्कि उनकी कंडीशनिंग ऐसी कर दी जाती है, कि वे राह चलते हो रही फिकराकशीं को सर झुकाये चुप-चाप सिर्फ बर्दाश्त करती जाती हैं, किसी सीधे-सादे लड़के के प्रपोज करने पर टसुए बहाते भाग निकलती हैं, और किसी मनबढ़ को खुलकर मना करने का साहस नहीं जुटा पातीं। मैं जिस कॉलेज में पढ़ता हूँ, वह उ०प्र० प्राविधिक विश्वविद्यालय (यू.पी.टेक्निकल यूनिवर्सिटी) के तीसरे नंबर का कॉलेज है- मेरिट और परीक्षा परिणामों की दृष्टि से। हालिया स्टार परफार्मर का भी पुरस्कार मिला है इसे.. लेकिन शाम साढ़े सात बजे लड़कियों को गार्ड सीटियों से ऐसे हाँक कर हॉस्टल भेजते हैं, जैसे बाल गोपाल माता से कह रहे हों- “मैया मैं तो धौरी चरावन जैहों”.. महीने में सिर्फ दो  बार शॉर्ट लीव(साप्ताहिक अवकाश के दिन सुबह 8 बजे से शाम के 8 बजे तक, और वर्किंग डे में शाम 4:30 से 8 बजे तक) मिल सकती है उन्हें..! और कल परसों नया शगूफा छेड़ा गया, कि अब होली-दीवाली की छुट्टियों में घर जाने को तभी अनुमति मिलेगी, जब माँ-बाप में से कोई एक उन्हें लेने आता है..! कारण सिर्फ इतना है, कि अपुष्ट सूत्रों के मुताबिक कोई छात्र-छात्रा कॉलेज ड्रेस में शहर में सिनेमा देखते पाये गये। कोई लड़की कॉलेज में किसी लड़के के साथ खुलेआम घूमती पाई जाये, तो उसकी मार्क्सशीट की सूरत बदल जाती है। कमाल की मुर्दा लड़कियाँ हैं, रोती हैं, कोसती हैं, लेकिन खुलकर विरोध नहीं जता सकतीं। निश्चित रूप से माँ-बाप ने बेहद उम्दा संस्कार दिये हैं.. और लड़कियों के पैरेंट्स की ड्रीम डेस्टिनेशन होता है यह कॉलेज।

चुनौती देता हूँ बजरंग दल, श्रीराम सेना और शिवसेना जैसे स्वघोषित संस्कृति के रक्षकों को.. इस अन्याय के खिलाफ़ आवाज़ उठा कर दिखायें, मैं तुरन्त उनकी सदस्यता ग्रहण कर लूँगा..!

और इस दमघोंटू वातावरण में जी रहे एकाध पंछी वेलेंटाईन डे जैसे सिम्बोलिक दिन अगर साथ में कुछ समय व्यतीत करना चाहते हैं, या कोई दब्बू लड़का अपनी एकतरफा मुहब्बत का इज़हार करना चाहता है, तो भाईलोग मारते-पीटते हैं.. जबरिया शादी करा देते हैं, कालिख पोत कर शहर में घुमाते हैं.. उनको कानून हाथ में लेने से मना कर मेरठ की पुलिस ऑपरेशन मजनूँ चलाती है, सीओ साहिबा स्वयं लड़के-लड़कियों को कंटापित करती हैं.. संस्कृति के रक्षक कहते हैं कि हमारी सभ्यता में प्रेम के लिये कोई दिन विशेष निर्धारित नहीं- सही बात है भाई, तो फिर आज के दिन प्रेम की पींगे बढ़ा लेने दो, क्यों रोकते हो?

और अगर विरोध बाजारीकरण का है, तो फिर मदर्स-डे या फादर्स-डे का विरोध क्यों नहीं??

छोटे शहरों व कस्बों के माँ-बाप को अपने बच्चों को जीने का स्पेस मुहैया कराना ही होगा, अन्यथा उनका प्राकृतिक विकास अवरुद्ध ही होगा, कोई फायदा होने वाला नहीं। साथ ही साथ उन्हें अपने बच्चों पर, उन्हे दिये गये संस्कारों पर भरोसा करना ही होगा, इसके अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं।

जो कहते हैं, कि पाश्चात्य सभ्यता के चलते युवाओं का चारित्रिक स्खलन हो रहा है, ऐसे स्व-नियुक्त नैतिकता के ठेकेदारों से कहना है कि हमारे नैतिक संबल बहुत मजबूत हैं, कृपया उनके बारे में न सोचें। आपको कोई हक़ नहीं इस सर्वसमावेशी प्राचीन सभ्यता के मठाधीश बनने का। जो लोग कहते हैं कि ये डे-वे मुक्त यौनाचार को बढ़ावा दे रहे हैं, उनसे पूछना है कि ऐसा क्या है आज के दिन में, कि जो लड़की साल भर नैतिक बनी रहती है, वह आज के दिन ‘ससेप्टिबल’ हो जाती है..?

हमारी नैतिकता पर शक़ न करें.. बल्कि सच तो यह है कि नैतिकता का ढिंढोरा पीटने वाले यही सड़क छाप सेनानी होली के दिन राह चलती लड़कियों पर रंग भरे गुब्बारे चलाकर मारते हैं, मारें भी क्यों न, उस दिन उनकी सभ्यता इसकी इज़ाजत जो देती है। होली सांस्कृतिक है, लेकिन वेलेंटाईन डे नहीं..!

और अपने मित्रों से कहना है, कि प्रेम को अंतरतम से महसूस करें, वह किसी दिन, किसी व्यक्ति का मोहताज नहीं, किसी व्यक्ति से भी हो सकता है, शरीरी हो जरूरी नहीं, अशरीरी भी हो सकता है। जरूरी नहीं कि मुखर होकर ही अभिव्यक्त हो, मौन अभिव्यक्ति से क्या प्रेम न होगा..?

आज मेरी माँ का जन्मदिन है.. हैप्पी बर्थडे माँ, हैप्पी वेलेंटाईन डे।

और हाँ, सुबह वाली पोस्ट बस ये चेक करने के लिये थी, कि ब्लॉगजगत में लोग कितने खलिहर बैठे रहते हैं..

चेतावनी- यह पोस्ट पढ़कर वक्त बर्बाद न करें..!



हुर्रे……….
याहू…. ढेन….टे….नान…
हुर्र…ल्क..ल्क..ल्क..
किड़्बिक..किड़्बिक…..किड़्बिक……

हुर्रे……….
याहू…. ढेन….टे….नान…
हुर्र…ल्क..ल्क..ल्क..
किड़्बिक..किड़्बिक…..किड़्बिक……

हुर्रे……….
याहू…. ढेन….टे….नान…
हुर्र…ल्क..ल्क..ल्क..
किड़्बिक..किड़्बिक…..किड़्बिक……


श्श्श्शशशशशशशशशश…….. आज कुछ है! आज तो बिलागिंग न करो!

सिद्धार्थ का दूसरा महाभिनिष्क्रमण..

गत 20 जनवरी को मेरे बड़े भाई डॉ० सिद्धार्थ Ischemic Heart and Brain Disorders पर शोध करने के लिये 3 साल के लिये दक्षिण कोरिया के लिये रवाना हुए.. परिवार में किसी की पहली विदेश यात्रा है यह.. सबका विचलित होना स्वाभाविक है.. मेरे विचलन का परिणाम है ये कुछ पंक्तियाँ..




भैया,
जा रहे हो तुम ना,
इस वतन से, इस आबो-हवा से दूर
नये लोगों के बीच
नई परिस्थितियों के बीच..




देखो-
तुम्हें विदा करने कौन आया है....!

गाँव के बाहर कच्चे आम के बागीचे/टपकते महुए के बाग
उसके पार धान के खेत/पम्पिंग-सेट के हौदे
कर्बला पर के साँप-बिच्छुओं की अनगिन दंतकथायें
पेड़ की कोटरों में छिपे चिड़ियों के अंडे
वे सारे तोते, जो तुमने पोसे
तुम्हारे खींचे कबड्डी-चीके के पाले/गाड़ी गईं विकेट
तुम्हारी लखनी/दुबरछिया के डंडे/सतगाँवा की गोटियाँ
तुम्हारा पहला बल्ला/सॉरी, मैनें तोड़ दिया था उसे
और तुम्हारी पहली ट्रॉफियाँ- जीते गये अनगिनत कंचे
जो मैनें हारे, सीखने की प्रक्रिया में.....


महिया में डूबा भूजा/अलाव में भुना आलू
नेपाली रबर की गुलेल- बहुत शिकार किये थे तुमने
पाठशाला के मौलवी साहब के डंडे
पोखरे का शिव मंदिर/घाट की सीढ़ियाँ/शिवरात्रि का मेला
नागपंचमी के दिन पुतरी पीटने के ताल-तलैये
दशहरे की रामलीला/ठाकुर जी का झूलन


बाबूजी का अखबार-ऐनक-खड़ाऊँ/अम्माँ का मीसा हुआ भात/चटनी
सोते हुए माँ के हाथों की खिलाईं रोटी/दी गई थपकियाँ
पापा के हाथ/बिना जिनके पकड़े दूध तुम्हारे गले से नीचे नहीं उतरता था
छोटे चाचा/जो रामलीला में तुम्हारे पीछे खड़े होकर तुम्हें
चतुर्भुज विष्णु का रूप देते/जबकि तुम स्टेज पर उँघ रहे होते
बड़े चाचा की लेग-स्पिन होती गेंदे
हर छुट्टी में तुम्हारे-मेरे पीछे पेट की दवा और पानी का गिलास लेकर दौड़ती बहन
जिसका पाणिग्रहण कराके विदा किया है तुमने अभी
टिल्लू, आदित्य, छुटकी, छोटा बाबू/तुम जिनके लिये बाबाभैया हो
और मैं..!


और भी हैं....
लखनऊ यूनिवर्सिटी के लेक्चर हॉल/सिमैप की लैब
क्लासिक की चटनी/बादशाहनगर का प्लेटफॉर्म/गोरखनाथ एक्सप्रेस
रविवार को मौसी के घर का खाना/गंजिंग
रीगल सिनेमा/पालिका बाजार/नाथू के समोसे
कोटला फीरोजशाह के बंद दरीचों के बाशिंदे
बुआ की बनाई घुघनी/दिल्ली की ठंड
और...और...और...


और भी असंख्य चीजे हैं, जो विदा करती हैं तुम्हें
ये और कुछ नहीं, तुम्हारे अस्तित्व के कण हैं/तुम्हारे फंडामेंटल पार्टिकल्स
ये सारे रंग/खुशबुयें/स्वाद/इमेजेस/महसूसियात/श्रुतियां/स्मृतियां
सहेज कर ले जाना अपने साथ
खुद को कभी अकेला नहीं पाओगे/अजनबियों के बीच भी
निस्वार्थ प्रेम रहा है इनका/किसी प्रतिदान की आकांक्षा नहीं




लेकिन मेरी एक आस है.....


सदियों पहले तुम्हारे ही एक  नेमसेक ने घर छोड़ा था
तो दुनिया को मिली थी ज्ञान, सत्य की अद्भुत विरासत
शांति के अनंतिम शिखर..
मैं चाहूँगा-
इस गाँव-गिराँव-समाज-राज्य-राष्ट्र को कुछ मिले तुमसे
सुना तुमने!


मैं चाहूँगा,
यह सिद्धार्थ का दूसरा महाभिनिष्क्रमण सिद्ध हो..!
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