झंडूबाम, वेयो-हेयो, अनजाना..ऐ..ऐ..ऐ.., यानी जो ग़ज़ल माशूक के जलवों से वाक़िफ हो गई उसको अब बेवा के माथे की शिक़न तक ले चलो।


अच्छा गाना बनाया है रहमान साहब ने- जियो, उठो, बढ़ो, जीतो..! इसी के साथ कई और गीत भी आजकल रेडियो पर सुनने को मिल जाते हैं- "मुन्नी बदनाम", "पी लूं..", "अनजाना..ऎ..ऎ..ऎ", और न जाने क्या क्या। बाजार की भाषा में ये सब चार्टबस्टर हैं। युवाओं की जुबान पर चढ़े, उन्हीं की धुनों में रचे बसे। परफेक्ट यूथ मैटेरियल।

लेकिन इनमें सब्सटांस कहाँ है? जनता की तथाकथित माँग और पसंद को ध्यान में रखकर बनाये जाने की दुहाई देते ये गीत न सिर्फ इनके रचयिता गीत(?)कारों के बौद्धिक दीवालियेपन का सुबूत देते हैं, बल्कि एक पूरी पीढ़ी को बौद्धिक जड़ता के धीमे जहर से सुला देने की पूँजीवादी-बाजारवादी दुश्चेष्टा की अनुगूँज भी इन बे-बहर-ओ-ताल गानों में सुनाई देती है।

क्या हमारा युवा केवल किसी की साँसों की शबनम पीने और जिस्म ओढ़्ने को ही बेताब बैठा है, या किसी के प्यार में झंडूबाम हो जाना ही उसके समर्पण की पराकाष्ठा है ? मुझे ऐसा नहीं लगता, अन्यथा इन गीतों को देख-सुनकर मुस्करा देने वाले युवाओं के बाजू दुष्यन्त की कालजयी.. "हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिये" सुनकर नहीं फड़क उठते, भले ही उसे "हल्ला बोल" में कितने भी रॉक तरीके से पेश किया गया हो! यह तो बाजार की शक्तियां हैं, जो विश्व के विशालतम युवावर्ग को बौद्धिक आर्सेनिक पिलाकर चिर-शीतनिद्रा में सुलाये रखने पर आमादा हैं, ताकि इस बड़े उपभोक्ता वर्ग की नींद जब भी टूटे, तो एक बहुराष्ट्रीय उत्पाद खरीदने भर के लिये। विवेकानन्द की धरती पर पूरी एक पीढ़ी को पहले इस धीमे जहर के आगोश में सुलाना, फिर ऊर्जाहीनता के लिये रीवाइटल और क्लाउड-९ बेचना एक भद्दे मजाक के अलावा और कुछ नहीं। यही बाजार है जो "महँगाई डायन" जैसे अपील करने वाले गीत को भी डीजे मिक्स बनाकर नाइटक्लबों के अँधेरे में एलएसडी और टकीला के साथ कॉकटेल बनाकर बेच देता है। कभी सर्वहारा संगीत के बारे में सुना था। पता नहीं था क्या होता है यह? अब लगता है कि "महँगाई डायन" जैसा ही कुछ होता होगा। तो एलएसडी-टकीला-सर्वहारा संगीत का यह कॉकटेल बेहद मारक, बेहद बेचनीय साबित होता है। पूँजीवाद हर चीज, यहाँ तक कि अपने धुरविरोधी का भी बेहतरीन इस्तेमाल करना जानता है।

पीयूष मिश्रा का "जिस कवि की कल्पना में ज़िन्दगी हो प्रेमगीत, उस कवि को आज तुम नकार दो/भीगती मसों में आज फूलती रगों में आज आग की लपट का तुम बघार दो" इस सड़ांध में बादे-बहार की तरह आता है। प्रसून जोशी, स्वानंद किरकिरे भी प्राय: सार्थक गीत रचते नजर आते हैं। लेकिन इनकी बौद्धिक रचनायें वह प्रभाव नहीं पैदा कर पातीं, जो बड़वई के एक मुदर्रिस की "डायन" पैदा कर जाती है। किरकिरे का "देस मेरा रंगरेज ये बाबू" वो भदेसपन नहीं पैदा कर पाता, फिर भी असंख्य बौद्धिक अफीमचियों की जमात में ये इक्के-दुक्के नाम पूरे होशो-हवास में नजर आते हैं।

चिरकाल से भारतीय संगीत ईश्वर और प्रेम के इर्द-गिर्द घूमता आया है। बेहतरीन गजलगो और कवियों-शास्त्रीय गीतकारों की यह धरती स्वाभाविकत: श्रृंगार के लिये ही लिखती-रचती रही है। लेकिन प्रेम की रूमानियत को इस बाजार ने बेहद भद्दे तरीके से बेचना शुरु कर दिया है। युवा भावनाओं की अभिव्यक्ति के नाम पर रचे कुछ सार्थक गीतों में भी एक विक्रयवाद का पुट नजर आता है। विडंबना तो यह है कि संस्कार और सभ्यता के नाम पर हम जिस पाश्चात्य संगीत का आज तक धुरविरोध करते आये, उसने "Give Me Freedom, Give Me Fire" जैसे जज़्बे से भरे गीत रचे। वहीं हमारे अंतर्राष्ट्रीय ख्यातिलब्ध संगीतकार काँख-कूँखकर "लागी रे अब लागी रे लगन, जागी रे मन जीत की अगन" जैसी बेहूदा पंक्तियों पर टिक जाते हैं। विकल्पहीनता की स्थिति में वेयो-हेयो जैसे निरर्थक शब्दों का प्रयोग करने वाले इस निहायती गैर-भारतीय मुर्दा सपरेटे गीत में थोड़ी ऊर्जा तब प्रतीत होती है, जब पंजाबी ढोल नगाड़ों की बीट्स सुनाई देती है। मार्केटिंग बुरी चीज नहीं, बशर्ते सही चीज की सही ढंग से की जाये। जबर्दस्त मार्केटिंग हुए "वाका वाका" में खूबसूरत शकीरा के परालौकिक नृत्य के अलावा "You Are A Good Soldier Chosing Your Battle" जैसी खूबसूरत पंक्तियां भी थीं। और हमारी मार्केटिंग "मुन्नी बदनाम" पर आकर रुक जाती है।

बाजार का डर स्वाभाविक है। यदि यह विशाल युवाऊर्जा जाग उठती है, तो सबसे पहले सदियों के इस औपनिवेशिक-नवऔपनिवेशिक, पूँजीवादी-नवपूँजीवादी शोषण का हिसाब माँगेगी। इस्लिये इसके सोये रहने में ही बाजार की भलाई है। लेकिन यदा-कदा युवा भावनाओं को आवाज़ देते "ये हौसला कैसे झुके", "लक्ष्य", "लेफ्ट राइट लेफ्ट" जैसे गीत भी आते रहने चाहिये। ढाई सौ सालों से सोई "द ग्रेट इंडियन एनर्जी" को जगाने के लिये विवेकानन्द के अलावा सीनों में आग जलाने वाले दुष्यन्त और "आज हिमाल तुमन को धत्यूछ" की पुकार देने वाले गिर्दा की भी जरूरत पड़ेगी। नजीर-दिनकर-धूमिल की इस जमीन पर यह बौद्धिक शीतनिद्रा लंबी तो है, लेकिन चिरस्थायी नहीं। तभी तो कहीं से विद्रोह फूट पड़ता है-

भूख के अहसास को शेरो-सुखन तक ले चलो
या ग़ज़ल को मुफ़लिसों की अंजुमन तक ले चलो
जो ग़ज़ल माशूक के जलवों से वाक़िफ हो गई
उसको अब बेवा के माथे की शिक़न तक ले चलो। 
      
ठेलनोपरांत: पुख्ता खबरें हैं कि बिरजू महाराज सहित अन्य छ: विख्यात शास्त्रीय नर्तकों, जिन्हें कॉमनवेल्थ थीम सांग पर परफ़ारमेंस देनी थी, उन्होंने बोल में परिवर्तन के अनुरोध को रहमान द्वारा अस्वीकार कर देने के बाद प्रस्तुति न देने का फैसला किया है। अब शायद उनके दबाव में आकर प्रसून जोशी व रहमान ने गीत के बोल व धुन में थोड़ा बदलाव किया है। वस्तुस्थिति तो २३ को पता चलेगी, वैसे मुझे कोई खास उम्मीद नहीं नजर आती।  

चरण चुंबन और Saving Own Ass से अच्छा है तथाकथित "घटिया" निर्णय लेना..



कुछ दिनों पूर्व ब्लॉगिंग में मेरे पथ-प्रदर्शक सिद्धार्थ जी का एक लेख व्यापक बहस का मुद्दा बना था। मैं मैदाने-जंग से एज-यूजुअल अनुपस्थित था। अब सोच रहा हूँ अपना पक्ष रखके भागते भूत की लंगोटी तो सहेज ही लूँ.. क्या पता  कॉमनवेल्थ गेमों में जो इज्जत नीलाम होने वाली है, उस समय अपनी इज्जत ढंकी रह जाये। 

प्रश्न यह है कि जिन प्रोफ़ेश्नल डिग्री धारकों, जैसे इंजीनियर, डॉक्टर आदि को प्रशासनिक क्षेत्र में आने से रोकने की बात की गई है, उन्होंने अपने प्रोफेशन का चयन किन परिस्थितियों में किया। मेरी व्यक्तिगत मान्यता व अनुभव यह है कि दसवीं के विद्यार्थी की शारीरिक-मानसिक परिपक्वता के कितने भी दावे कर लिये जायें, वस्तुस्थिति यही होती है कि प्लस टू के स्तर पर विषय चयन में उनका सबसे बड़ा प्रेरक तत्व संगी साथियों की अभिरुचि ही होती है। खासतौर पर गोबरपट्टी, उसमें भी मध्यम-निम्न मध्यमवर्गीय माता-पिताओं की दमित आकांक्षायें होती हैं कि उनका बेटा या बेटी इंजीनियर डॉक्टर बने। ये फ्रॉयडीय दमित इच्छाएं भी हो सकती हैं, लेकिन वर्तमान सामाजिक परिवेश में आर्थिक सुरक्षा की दृष्टि से इस प्रवृत्ति की सीधी आलोचना किया जाना भी श्रेयस्कर नहीं है।

तो बचपन से ही जहाँ बच्चे को यह सिखाया जा रहा हो कि बेटा अगर अंकल पूछें कि क्या बनोगे? तो बोलना इं..जी..नि..य..र.., या बेटी के केस में डॉक्टर।वहाँ वह बच्चा दसवीं तक आते आते अपना मानसिक स्तर इनके परे सोच सकने तक उठा ले, तो यह उसकी प्रबल इच्छाशक्ति ही होगी, कोई सामान्य परिस्थिति नहीं। तिसपर उसके सभी हमउम्र साथियों की यही सोच... इस भेड़ियाधसान में उसे कहाँ स्कोप है निरपेक्ष भाव से अपने कैरियर संबंधी निर्णय ले पाने का, या अन्य विकल्पों के बारे में सोच सकने का। यही विकल्पहीन की गई जनता ही जब आंखें मूंदे बंसल, फिटजी, आकाश के प्रश्नों के घोटे लगाये प्रथम-द्वितीय या तृतीय श्रेणी के कॉलेजों में दाखिला ले लेती है, और जब सत्य का साक्षात्कार होता है तो उनके हाथों के तोते उड़ जाते हैं। मेरे पास आज भी दोस्तों के एसएमएस आते हैं- " निगाह आज तलक ढूंढती है उस आदमी को, जिसने कहा था बी.टेक कर लो- बड़ा स्कोप है।"

एकाध बिरले कॉलेजों को छोड़ दिया जाय तो लगभग सभी इंजीनियरिंग कॉलेज इतनी सड़ांध मारती शिक्षा पद्धति से जुड़े हैं, जहाँ छात्र का चार वर्षीय कार्यक्रम बन जाता है येन-केन-प्रकारेण बैक बचाना। शिक्षकों के आगे-पीछे घूमकर, चरण-चुंबन के द्वारा इन्टर्नल जुटाना ताकि ग्रेड प्वाइंट/ परसेंटेज ठीक-ठाक बन सके। फ़िर इधर उधर से चुराये आइडिया को किसी तरह प्रोजेक्ट के रूप में पूरा करना। एकाध आईआईटी को छोड़ दें तो कहीं नवाचार, अनुसंधान पर कोई बल नहीं। स्मार्टनेस के नाम पर अभिरुचि घटियापन के सबसे निचले स्तरों को पार कर जाती है, ये सब इस प्रणाली के एड-ऑन हैं।  

कम्पनियों की भी यही परिस्थिति है। अधिकतम उदासीन और बॉस-चरणसेवी बनकर हर कोई “Saving Own Ass” में लगा हुआ है। आप बताइये- एक महात्वाकांक्षी, चुनौती स्वीकारने वाला और प्रतिभाशाली युवा अब क्या करे? इनमें वे विकल्पहीन भी होते हैं, और तुलनात्मक रूप से जानबूझकर यहाँ फ़ंसे युवा भी, जिनके सामने इस सेक्टर की हक़ीकत अब उजागर हुई है। अब अगर इसी सेक्टर में रहना है तो धीरे से विदेश की राह पकड़ लो.. तब भी लोगों की आलोचना का शिकार बनना है। भारतीय कंपनियां इन्फोसिस, टीसीएस, टेक-महेन्द्रा, एयरटेल, रिलायंस आदि सभी कर्मचारियों के लिये यातना शिविर बनी हुई हैं.. क्यों इन कंपनियों को अमेरिका में “Body Shops” कहकर हिकारत भरी नजरों से देखा जाता है, कारण यहाँ की व्याप्त घटिया कार्यसंस्कृति है जो किसी महात्वाकाँक्षी युवा को संतुष्ट कर पाने में असफल है। उपभोक्ता संतुष्टि के मामले में सेपिएन्ट, एसेंचर जैसी कम्पनियों की तुलना मॆं हमारी कम्पनियां कहाँ ठहरती हैं?

तो दूसरा विकल्प बचता है कैरियर स्विच करने का, और समझदार लोग वह करते भी हैं। आप फाउल नहीं रो सकते.. वे गैर विज्ञान विषय, जैसे दर्शन-लोकप्रशासन-समाजशास्त्र-मनोविज्ञान, यहां तक कि हिन्दी-उर्दू-पालि लेकर इन्हीं विषयों के ग्रेजुएट-पोस्टग्रेजुएट से स्पर्धा करते हैं और सफल होते हैं। आप इन्हें रोकने की वक़ालत क्यों करते हैं? संरक्षणवादी प्रवृत्तियां छोड़िये, मुक्त प्रतिस्पर्द्धा का जमाना है।

दूसरा प्रश्न उठा सामान्यज्ञ बनाम विशेषज्ञ का । आप तेजी से बदलती परिस्थितियों के सन्दर्भ में देखें, खासकर नब्बे पूर्व और आज। आर्थिक सुधारों, वैश्वीकरण से पूर्व प्रशासन की चुनौतियां क्या थीं, और अब क्या हैं? साइबर क्राइम, पर्यावरण संरक्षण, ई-वेस्ट, आपदा प्रबंधन, आर्थिक अपराध, ग्राहकोन्मुखता, आर्थिक अपराध, जल संसाधन प्रबंध, सूचना क्रांति, ई-गवर्नेंस, डिजिटलीकरण, पेपरलेस ऑफिस आदि प्रमुख प्राशासनिक चुनौतियां और दायित्व नब्बे से पूर्व कहां थे? आज ये लोकसेवा का बहुत बड़ा कार्यक्षेत्र निर्मित करते हैं, और प्रशासन में विशेषज्ञता की माँग करते हैं। लक्षण तो यही बताते हैं कि सामन्यज्ञों के दिन बस लदने वाले हैं। समान विषय लेकर चयनित व साक्षात्कार में पहुँचे दो अभ्यर्थियों, जिनमें से एक वैज्ञानिक पृष्ठभूमि का है और दूसरा गैर वैज्ञानिक पृष्ठभूमि का.. में से चयन करने में आयोग को कोई समस्या नहीं होती। और यहाँ प्रश्न यह नहीं है कि एक बी.टेक. या एमबीबीएस बंदा किसी बीए-एमए का हक़ मार रहा है, बल्कि उपलब्धि यह है कि देश को एक योग्य प्रशासक मिल रहा है, जो समस्या निदान (Troubleshooting) में ज्यादा सक्षम है। इंजीनियर मुख्यमंत्री द्वारा शासित बिहार का विकास मॉडल, जो दशकों से पिछड़े राज्य को 11.5% की विकास दर तक पहुँचाता है, या अपराधियों का आधुनिक डाटाबेस इस्तेमाल करने वाली यूपी पुलिस, जो इस कार्य के लिये लखनऊ के पूर्व एसएसपी नवनीत सिकेरा(बी.टेक) की शुक्रगुजार है, या फिर रानीखेत के ज्वाइंट मजिस्ट्रेट डॉ. अडप्पा कार्तिक, जो हर हफ्ते वहाँ की गरीब पहाड़ी जनता के लिये मुफ़्त चिकित्सा शिविर आयोजित करते हैं... ये सब बदलाव की खुशनुमा हवा के झोंके हैं। इनसे वंचित कराना किसी के साथ न्याय नहीं होगा.. न तो इन प्रतिभाओं के लिये, न ही पहले से ही भ्रष्टाचार, लालफीताशाही और सदियों पुराने नियम कानूनों में जकड़ी अफसरशाही के लिये।

मौज में: वैसे भी इनके प्रशासन में आने से इंजीनियरिंग सेक्टर का कुछ बिगड़ने वाला नहीं। नैस्कॉम के सर्वे के मुताबिक नये नवेले पास-आउट में से लमसम 80% किसी तकनीकी नौकरी के लायक नहीं होते।        



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