दूसरी संपूर्ण क्रांति

सोच रहा हूँ आज से ६४ साल पहले नोआखाली की एक झोंपड़ी में बैठे अस्सी बरस के उस बूढ़े को इस वक़्त कैसा लग रहा होगा..! जीते जी अप्रासंगिक हो जाने का दंश सहते हुए भी वह महात्मा दूसरों के बहाये लहू को धुलने की कोशिश कर रहा था..

बासठ साल की जीवन प्रत्याशा वाले देश में ६४ बरस तक जी लेना स्वयं में किसी उपलब्धि से कम नहीं है, तिसपर एक पूरा मुल्क़ इतना जी ले तो जश्न तो बनता ही है..

लेकिन इस जश्न पर यह तीरगी सी क्यों छाई है?..

सुबह दस बजे सोकर उठा और ढूंढने पर भी किसी चैनल पर प्रधानमंत्री के भाषण के फुटेज नहीं दिखे.. पता नहीं किसी ७४ बरस के बूढ़े को उस महात्मा के समकक्ष दिखाने की होड़ मची थी.. आखिर डीडी न्यूज़ पर प्रधानमंत्री का संबोधन देखने को मिला, लेकिन विद्वान अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री भी उसी बावले बूढ़े की बात करते नज़र आये..

जब एक सफेद बालों वाला बूढ़ा किसी आज़ादी के जश्न को हाइजैक कर लेने की काबिलियत रखता हो, तो वह लोकतंत्र के सरकारी संस्करण के लिये खतरनाक साबित हो सकता है, यह मजमून १४-१५ अगस्त को मनीष तिवारी जैसों से लेकर सिब्बल व सोनी जैसों के चेहरे पर पसरी दहशत से साफ पता चल रहा था। अहंकार भरे, जहर बुझे बयान केवल उस आतंक को अंडरलाइन करते ही नजर आ रहे थे..

व्यक्तिगत तौर पर मैं जनलोकपाल बिल के कई प्रावधानों का विरोधी हूँ.. विशेषकर प्रधानमंत्री और उच्च न्यायपालिका को इसके दायरे में रखने का। किसी देश में टॉप एक्जीक्यूटिव को कमजोर करके आप कुछ नहीं पा सक्ते.. विशेषकर भारत जैसे व्यापक असमानताओं वाले परिवेश में किसी ईमानदार out of the box ideas की बहुत आवश्यकता है, जो जनलोकपाल की गिद्ध दृष्टि के रहते संभव नहीं है, अभी सोनिया जी के सामने मनमोहन सिंह की जो स्थिति है, कमोबेश वही स्थिति भावी प्रधानमंत्रियों की जनलोकपाल के समक्ष हो जायेगी। पुन: न्यापालिका की स्वतंत्रता पर आक्षेप संविधान निर्माता पितृपुरुषों के स्वप्नों की बर्बर हत्या के तुल्य होगी। इसके अतिरिक्त इसके अधिकांश (सभी नहीं) प्रावधान मुझे समीचीन लगते हैं.. हालांकि मैं उनपर यहां बहस नहीं चाहता।

सरकारी लोकपाल संयुक्त सचिव से नीचे की जाँच नहीं करेगा.. इस एलीट लोकपाल को दांत विहीन वॉचडॉग बनाया गया है जो सिर्फ़ भौंक सकता है, काट नहीं सकता। वहीं जनलोकपाल ऐसा खूंखार भेड़िया है, जिसके आँख-कान-नाक की जगह भी दांत ही दांत हैं। दोनों पर्याप्त रूप से ग़लत हैं, और जो मध्यमार्ग संयुक्त मसौदा समिति से निकलना चाहिये था, वह नहीं निकला तो दोनों पक्ष जिम्मेदार बनते हैं, विशेषकर सिविल सोसायटी पक्ष.. अपने ड्रॉफ्ट पर अड़ियल रवैया अपनाकर अन्ना की टीम भी परोक्ष रूप से संसद (and hence जनता) की सर्वोच्चता पर ही प्रश्नचिह्न लगा रही थी।

अप्रैल से अबतक सरकार के नपेतुले क़दमों का प्रशंसक था। सिविल सोसायटी को पर्याप्त इज़्ज़त बख्शते हुए उसे लोकपाल की संयुक्त मसौदा समिति में आमंत्रित करना, प्रोटोकॉल को धता बताते हुए रामदेव की अगवानी और कुत्सित राजनीति का प्रयास करने पर "रामलीला".. ये सभी कदम प्रशंसनीय थे, जम्हूरियत को मज़बूत करने वाले थे..

लेकिन रामदेव प्रकरण के बाद तो जैसे ‘भारत सरकार’ ‘कांग्रेस सरकार’ में तब्दील हो गई, हर बात में अपना घृणित सांप्रदायिकता कार्ड खेलने लगी.. अन्ना और साथियों पर व्यक्तिगत आक्षेपों की झड़ी,... हद है। मनीष तिवारी जैसे भी अन्ना को ‘तुम’ कहकर संबोधित करने लगे। आरोप लगे कि उनके जन्मदिन पर ट्रस्ट ने 2.2 लाख खर्च किये, अगर यह बात सही भी है तो उन लोगों ने यह तोहमत लगाने की बेशर्मी कैसे दिखाई जो अपने जन्मदिन पर करोड़ों की माला पहनते हैं। जस्टिस सावंत की बात करने वाले जस्टिस सुखटंकार नाम गोल कर जाते हैं.. केवल इसी आरोप की कमी रह गई है कि अन्ना अपना कुर्ता कलफ नहीं करते.. जनता को तो सबों ने जैसे सल्फेट समझ रखा है.. घृणित है यह सब। माने अगर हमारे जैसे लाखों करोड़ के भ्रष्टाचारियों, हत्यारों, बलात्कारियों पर उंगली उठाने के लिये तुम्हें निष्पाप, निष्कलंक देवदूत होना पड़ेगा।

14-15 अगस्त को अन्ना के साथियों को अनशन की जगह देने के लिये जिस क़दर दौड़ाया गया, और बचकानी राजनीतिक स्वार्थपूर्ण शर्तें रखी गईं, यह देख-सुनकर अगर बापू की आत्मा बोल सकती, तो 15 अगस्त को प्रधानमंत्री को अपनी समाधि के आसपास फटकने भी नहीं देती.. यह कैसा लोकतंत्र है जिसमें एक अदद असहमति के लिये भी जगह नहीं??

यह लोकतंत्र की विफलता की निशानी है कि अबतक सिविल सोसायटी ही फ्रंट पर है.. जीवंत लोकतंत्र में एकबार जनमत बन चुकने के बाद इस आंदोलन की बागडोर अबतक राजनीतिक दलों के हाथ में होनी चाहिये थी.. सत्ता परिवर्तन होने पर सत्तासुख उन्हीं को भोगना है, सिविल सोसायटी को नहीं। लेकिन अच्छा भी है.. विपक्ष में बैठी पार्टियां भी सत्ताधारी पार्टी की ही कार्बन कॉपी हैं, कई माय्नों में तो ओरिजिनल से भी ज्यादा खतरनाक.. इन गिद्धों को मौका न ही मिले तो अच्छा है।

निश्चित रूप से यह एक व्यापक लड़ाई की शुरुआत है.. दूसरी संपूर्ण क्रांति। लेकिन दुर्भाग्य था कि पहली संपूर्ण क्रांति केवल सत्ता परिवर्तन तक ही सीमित रह गई, इस क्रांति को कहीं ज्यादा गहरे उतरना होगा, व्यवस्था परिवर्तन को लक्ष्य करना होगा। ‘77 में चूकने के 34 साल बाद दुबारा मौका मिला है। इस बार चूके तो शायद दुबारा मौका न मिले। देश ‘77 की असफलता दुबारा नहीं झेल सकता। अब प्रश्न जनलोकपाल का नहीं, "जन-गण-मन" के "स्वाधिनायकत्व" का है..

समय- वही जब स्वतंत्रता की वर्षगांठ पर किसी की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता छीनने की घोषणा की जा रही है
स्थान- वही शहर, जो बारिश में भीगता हुआ दम साधे अगली सुबह के इंतजार में है..      



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यह लेख 15 अगस्त को लिखा था.. आज सुबह पता चला कि अन्ना को गिरफ्तार कर लिया गया है, और |म को दो खबरें एक साथ। एक- उन्हें तिहाड़ में कलमाडी के साथ रखा गया है, दो- 87 वर्षीय जस्टिस राजेंद्र सच्चर को धारा 144 भंग करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया, तब जबकि वह अकेले थे। दिन भर के कार्यकलाप पर कोई टिप्पणी नहीं.. यह उन बिरले दिनों में से है, जब एक की गलती पर पूरा राष्ट्र शर्मिंदा होता है। मैं इसे 30 जनवरी 1948 और 4 नवंबर 1974 के समकक्ष रखता हूँ.. क्या 25 जून 1975 की भी पुनरावृत्ति होगी, समय ही उत्तर देगा।


एक और बात.. ब्लॉग पर समय नहीं दे पाता हूँ.. लेखन के कीड़े को शांत रखने के लिये कभी कभार कुछ लिख दे रहा हूँ.. पढ़ अवश्य लेता हूँ, परन्तु मेरी अपनी पोस्ट पर भी संवाद कायम नहीं हो पाता है, आप लोगों की पोस्ट पर तो दूर की बात है.. इस अपराधबोध से बचने के लिये टिप्पणी का विकल्प बंद कर रहा हूँ.. जब व्यस्तता से मुक्ति मिलेगी, तब दुबारा चालू होगा..
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